Tuesday, July 29, 2014

सुरक्षा.... किसकी ???

बेहद शर्म की बात है....
      बलात्कार/रेप के बाद की गयी हत्या पर प्रशासन राजनीति खेलता है। आज-कल किसी की हत्या/मुत्यु होना कोई बड़ी बात नहीं रह गयी इतना गर्जा है तभी तो लोग दबंग है। ये सब वैसे ही है जैसे चींटी को राह से गुज़रते देख मसल दिया जाता है। कितनी सस्ती है जान और उससे भी ज्यादा सस्ती है इंसानियत।

मोहनलालगंज के केस को 18जुलाई के बाद पहले पेज के आखरी कॉलम से ले कर कल अख़बार से पहले दुसरे दसवें और फिर अंतिम पेज के बाद आज विदा ही मिल गयी लेकिन केस को कोई सकारात्मक राह नहीं मिली। पोस्टमॉर्टम से मिले सबूतों और फारेंसिक रिपोर्ट को गलत तरीके से पेश किया गया। खुद महिला पुलिस अधिकारी इस केस से पल्ला झाड़ अलग खड़ी हो गयीं केस को अँधेरी दिशा में मोड़ दिया गया जहाँ तीर-पे-तीर मारे जा रहे है। एक महिला हो कर एक महिला के प्रति ऐसा उदासीन व्यवहार निराशाजनक है ....बेहद निराशाजनक।

हत्या के सबूतों को मिटाना और उससे सम्बंधित तथ्यों को नज़रंदाज़ करना, सामूहिक बलात्कार को एक व्यक्ति द्वारा किया गया अपराध बताना, गाड़ी की चाबी से हमला करना जबकि पागलपन की हद तोड़ कर महिला के साथ मार-पीट की गयी क्या वो सिर्फ एक चाबी से ? आश्चर्य है......

पकड़े गये आरोपी का बहलाकर महिला को घर से बाहर लाना जैसे वो महिला बिलकुल नादान रही। इस बात पर गौर नहीं किया गया बल्कि उल्टा महिला ही चरित्र पर उँगली उठाई गयी की वो जान-बुझ कर आरोपी व्यक्ति के साथ गयी। ये सभी बातें इस ओर इशारा करती है कि इस केस  को उलझाया जा रहा है। अपराधी आस-पास ही है लेकिन उनको वक़्त दिया जा रहा है की वह भाग जायें। इन सब बातों पर विचार कर ये जान पड़ता है कि इस केस में कोई बड़ा बाप या उसका बिगड़ा बेटा और उसके बोराये रिश्तेदार शामिल है।

इस केस पर नज़र डालिए आपको नहीं लगता की पुलिस और प्रशासन के लोग जानते है कि इस हैवानियत भरे अपराध को किस-किस ने अंजाम दिया। खबर अनुसार यह भी बताया गया की जिस विद्यालय में यह घटना हुई उसके पास ही क्लिंटनका प्रोग्राम चल रहा था । कहीं ये तो नहीं ये घटना पहले से प्लान की गयी हो और इस प्रोग्राम के चलते इस का फायदा लिया गया हो । हो सकता है वहाँ मौजूद प्रशासन के लोगो में से कोई इस घटना में शामिल हो जिसको बचाने के लिए पुलिस केस को दिशाहीन बना रही है ।

कोई भी महिला इतनी मुर्ख नहीं होती की अपनी जान-पहचान वाले व्यक्ति को हेलमेट पहन लेने के बाद न पहचाने । अजीब है......पुलिस के तर्क बेहद अजीब है लगता है जैसे पुलिस का काम अपराधियों को पकड़ना नहीं बल्कि उन्हें किस तरह से अपराध से बचाया जाये ये सोचना रह गया है और ऐसा ही अब तक होता आया है जीतनी तेज़ी से अपराध बढ़ रहे है उससे ज्यादा तेज़ी से अपराधियों को बचाने के तरीकों में इजाफ़ा हुआ है ।  

अगर सच में हमारी सरकार और प्रशासन को महिलाओं की सुरक्षा की चिंता होती तो दिल्ली कांड के बाद बलात्कार के मामलों में इतनी तेज़ी नहीं आती न ही अपराधियों के होंसले बुलंद होते । उन्हें कानून का और सजा का डर होता। ( इसीलिए यह अनिवार्य है कि कोई स्वतंत्र संस्था सी बी आई ही नहीं बल्कि कोई independent commission consisting of a few judges  and social activists इस तरह के मामलों की निष्पक्ष हो कर तफ्तीश करे)|

पर ऐसा नहीं है ......जिस पर ताज्जुब नहीं दुःख होता है ये देख कर कि हमारे सत्ताधारी नेता जो चुनावों के वक़्त महिला सुरक्षा के मुद्दे को ले कर अपना गला फाड़ा करते है, महिलाओं की आन-बान-शान की ज़िम्मेदारी लेते है, महिलाओं को सबल और उनके समग्र भविष्य को बनाने का ढिढोरा पीटा करते है वही सत्ता में आने के बाद महिलाओं के मुद्दों पर अपने कानों में रुई ठूस लिया करते हैं उनकी दुहाई पर नाक-मुंह सिकोडा करते हैं और जवाबदेही में महिलाओं को ही कटघरे में खड़ा करते है ।

ये नेता लोगो के जवाब ही है जो अपराध और अपराधियों को उकसाता है ‘’लड़के तो लड़के है उनसे गलतियाँ हो जातीं हैं’’ ये टिप्पणी आती है नेताओं से तो फिर क्यूँ न उन्हें शेह मिलेअपराधी यही सोचता है कि क्या होगा, कुछ नहीं ’’अरे मेरे फलाना सरकार में है वो संभाल लेंगे’’ और अब तो सीधा हिसाब है बलात्कार के बाद हत्या सबूत मिटने के लिए शरीर के साथ हैवानियत करो अपनी दिमाग की सारी गन्दगी इस हैवानियत कृत्य में उड़ेल दो। इनके लिए बलात्कार छोटी बात है सिर्फ मात्र एक ‘’गलती’’ .....अफ़सोस होता है किन लोगो के बीच है हम।

कोई एक मामला नहीं है ये सभी मामलों का यही हाल है और जितना ज्यादा इसके प्रति संवेदन होने की जरुरत है उतनी ही असंवेदनशीलता के साथ इसको अनदेखा किया जा रहा है।  
कोई लड़की/महिला अपने ही घर में सुरक्षित नहीं तो वो जाए कहाँ ? बाहर जाये जहाँ उसके लिए पहले से लार टपकाते बाज़ उसे नोच खाने के लिए बैठे है। किस से कहे ? अपनों से कहना का मतलब नहीं और जिनसे कहती है वो कुछ करते नहीं, फिर क्या करे वो ? कौन देगा इन सवालों के जवाब ?

देश के नागरिक होने का वास्ता दे कर हर बार चुनावों पर हाथ फेला-फेला कर, माताओं बहनों कह-कह कर वोट मंगाते है यही सत्ताधारी और जब उनके साथ अन्याय होता है, अपराध होता है तो उनकी बात तक नहीं सुनी जाती बल्कि पलट कर उलजलूल टिप्पणियां की जाती है। कैसा देश है ये ? ये सरकार और ये सत्ताधारी कैसे है ? क्या इनकी बेटियां नहीं ? क्या इनके घरों में नारी सम्मान नहीं सिखाया जाता ? कैसी हुई है इनकी परवरिश जिसमें नारी संवेदनाओं की परिभाषा शामिल नहीं ? किस मिट्टी के बने है ये सम्वेदंशुन्य लोग ?

मैंने अपने पूर्व लेख ‘’महिलाओं की सुरक्षा ?’’ में अपने विचार को पाठकों के समक्ष रखा जिसमें मैंने ये कहा ‘’की क्या होगा यदि देश की हर महिला अपनी सुरक्षा के लिए बन्दुक रखे और अपने को छूने वाले को गोली मार दें क्यूंकि जो अब इनके साथ हो रहा है वो न्याय नहीं’’ जिस पर पुरुष वर्ग की नाराज़गी मुझे झेलने को मिली पर आप लोग जरा सोचें क्या ये सही नहीं है ? क्या ये होना महिलाओं के हित का नहीं ? जो हालात है आज समाज के उनको देख कर हर माँ अपनी आने वाली बच्ची को गर्भ में ही खत्म करना चाहेगी । क्यूँ वो उसके शरीर के टुकड़ों-टुकड़ों में बिने, क्यूँ उसके लहूलुहान कपड़ों को समेटे, क्यूँ उसकी इज्ज़त पर समाज के ठेकेदारों के ठहाके सुने, क्यूँ उसको बार-बार अख़बारों में, टीवी में, सनसनाती चर्चाओं में, लोगों के जायकेदार छल्लों में नुमाइश का ज़रिया होने दे क्यूँ ??? इन प्रश्नों का किसी के पास कोई जवाब है क्या ?

विकल्प यही है लड़ो या मरो। मर कर लड़ना नहीं है लड़ते हुए मारना है अपराधियों को। पुरुष वर्ग का बहुत कम प्रतिशत है जो इन मामलों के प्रति संजीदा है इसलिए ये अपराध कम नहीं हो रहे क्यूंकि इनका सोचना यही है की ये उनकी ज़िम्मेदारी नहीं कानून की ज़िम्मेदारी है।

तो क्यूँ न महिलाएं ही आगे आये और थामें हथियार। ये देश जितना किसी पुरुष का उतना ही एक स्त्री का भी और उसके बदलने में यदि पुरुष अपना साथ नहीं देता तो आधी पूरी शक्ति महिलाओं के हाथों में है । जिस तरह महिलाएं सरकार बना सकती और बिगाड़ भी सकती है उसी तरह से एक जुट हो कर महिलाओं के विरुद्ध होते ऐसे घिनोने अपराधों को मिटा भी सकती है।

अपनी सुरक्षा करना हर महिला हर इन्सान का पहला हक है जिसके लिए उसे किसी कानून की अनुमति नहीं चाहिये।

आज परिवर्तन के लिए महिलाओं का जागरूक होना बहुत जरुरी है । सबके लिए न सही अपने लिए बस ये सोचो ‘’जिन्दा रहना है तो मारो, या मरो’’ ।  


Sunday, July 6, 2014

सोच बदलो समाज बदलेगा

अक्सर देखा गया है कि जब दो व्यक्ति अजनबी से मिलते है तो हाल-चाल के बाद सीधे जाति सम्बन्ध के बारे में पूछने लगते है और उसके बाद यदि दोनों ही एक जाति के निकले तो ''परम मित्र'' बन जाते है और यदि अलग जाति के निकले तो बात साधारण हो कर आई-गयी हो जाती है पर यहाँ अज़ब तब होता है जब दोनों में से एक उच्च जाति का हो और दूसरा निम्न जाति का तब बात-चीत ‘’इस परिचय’’ के बाद सदा के लिए समाप्त हो जाती है या ये कहे की उसी वक़्त विराम लग जाता है सदा के लिए।

मतलब आपसी बोलचाल के लिए भी एक ही जाति विशेष का होना बहुत आवश्यक है अन्यथा सभी अजनबी ही सही। कैसी मानसिकता है यह ? किस स्तर की बात है यह ? किन लोगो की बात है यह ? और सबसे महत्वपूर्ण क्यूँ है यह ?

मनुष्य स्वयं एक जाति है क्योंकि सारे मनुष्यों की मौलिक क्रिया विधि और वाह्य स्वरुप एक जैसा ही है। जाति का होना और किसी विशेष जाति का होना समाज का व्यवस्थापक नजरिया है न की व्यवहारिक नियम।

जातियों का गठन किसी को नीचा दिखाने या किसी का तिरस्कार करने के लिए नहीं किया गया था वरन यह एक सामजिक व्यवस्था है जिसे बेहतर विकास और जीवनयापन को सरल बनाने के लिए समाज ने अपनाया गया। जातियां गठित कभी नहीं की गयी। लोगों को वर्गों में बांटा गया उनके कार्यों के अनुसार जैसे लिखने-पढ़ने का कार्य करने वालो को ब्राह्मण वर्ग कहा गया, जो लोग सेना में सेनिक थे उन्हें क्षत्रिय वर्ग दिया, जो व्यापार का काम करते थे उन्हें वैश्य कहा गया और जो लोग इन सभी वर्गों की सेवा का कार्य करते थे उन्हें शूद्र वर्ग में रखा गया। यह सिर्फ कार्य व्यवस्था बनाये रखने के लिए की गयी अस्थियी व्यवस्था थी परन्तु जैसे जैसे समय बीतता रहा वैसे ही लोगो ने इस व्यवस्था को पीढ़ी-दर-पीढ़ी जन्म के आधार पर स्थायी रूप दे दिया गया जिसमें ब्राह्मण के बच्चे वही कार्य करते थे जो उनके पितृ-वर्ग करते थे इसी प्रकार क्षत्रिय के सैनिक, वैश्य के व्यापार और शूद्र के सेवा का कार्य करने लगे जिसके बाद जो व्यवस्था समाज के जीवनयापन को बेहतर बनाने के लिए बनायीं गयी थी वही अब भयावह स्थिति में आ गयी।

वर्गों को बाँट कर जो कार्य समाज को व्यवस्थित करने के लिए किये गये थे वही जातियों का नाम दे कर समाज को और लोगों को सताने और उनके पतन का कार्य करने लगे। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों प्रकार की जातिओं में से सबसे ज्यादा कठिन समय शूद्र जाति ने देखा और सहा इन्हें न सिर्फ मारा-पीटा जाता था बल्कि गहन यातनाएँ दी जाती थी एक गुलाम की तरह इनसे काम लिया जाता था, अछूत कह कर समाज के अन्य वर्ग से बिलकुल अलग रखा जाता था उनका साथ रहना, साथ उठाना-बैठना, खाना-पीना किसी को गवारा न था।
उनके कार्य साफ़-सफाई के थे इसलिए यह माना जाता था की यह गंद है और गंद को छुआ नहीं जाता इसलिए इन्हें अछूत, दलित और कई घ्रणित नामों से संबोधित किया जाता रहा है।

जबकि देखा जाये तो शूद्र जाति समाज का एक महत्वपूर्ण अंग था जो स्वछता से जुड़ा था परन्तु कुछ बुद्धिजीवियों ने अपने वर्ग को महान साबित करने और अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए अपने से छोटे और कमज़ोर वर्ग पर अत्याचार किये और आज तक करते आ रहे है बस जिसका तरीका थोडा आधुनिक हो गया है।

हालाकिं आज के समय में जातिवाद का मुद्दा कई लोगो को समझ नहीं आता पर बहुत से ऐसे भी लोग है जो इस मुद्दे को बार बार कुरेद कर समाज में असमाजिता फैलाना चाहते है। कितना अजीब हाल है समाज का की साथ उठेंगे बैठेंगे पर जैसे ही जाति का ज्ञान होता है उनके तेवर बदल जाते है मन बदल जाते है अजीब है ....बेहद अजीब।

मैं कोई सक्रियतावादी नहीं हूँ परन्तु समाज में होने वाली बुराईयों के ख़िलाफ़ ज़रूर हूँ और यहाँ किसी विशेष जाति का समर्थन भी नहीं कर रही हूँ बल्कि हर जाति और हर वर्ग के लिए अपने विचार रख रही हूँ क्यूंकि मुझे लगता है की जातिवाद की समस्या केवल एक जाति के लिए नहीं है वरन सभी जाति के लिए है ....हाँ उसका स्तर अलग-अलग ज़रूर है।

ब्राह्मणों को ले लीजिये जिन्होंने पढ़ने-लिखने और पूजा-पाठ का कार्य अपने ज़िम्मे लिया और उसी को अपनी धरोहर मानते रहे आज भी इसी वर्ग के लोग मंदिरों में दिखाई देते है और यदि किसी अन्य जाति के व्यक्ति को इसमें रूचि हो भी तो उसे सहयोग नहीं मिलता बल्कि ताने और आलोचनाएँ मिलती है। किसी नीची जाति वर्ग को पण्डित नहीं कहा जाता उसका ज्ञान अधिक क्यूँ न हो परन्तु वो तब तक पण्डित नहीं जब तक उसकी जाति ब्राह्मण/पण्डित की नहीं। इसी प्रकार क्षत्रिय जाति जिसमें बहादुर लोगो को सेना में लड़ने के लिए रखा जाता था जो बाद में ठाकुर, राजपूत वगेहरा वगेहरा कई छोटे अन्य वर्गों में बंट गये जिनका मुख्य कार्य दबंगायी करना और तानाशाही बनाये रखना होता था जो अब तक उनकी जागीर बना हुआ है किसी और वर्ग का व्यक्ति इनके साथ काम कर सकता है लेकिन इनकी तरह दबंगायी नहीं कर सकता और यदि कोई कोशिश भी करे तो यह बर्दाश्त नहीं कर पाते।

व्यापारी वर्ग यानि वैश्य जाति के लोग अपने सिवा किसी को व्यापार में शामिल नहीं करते थे उन्हें डर रहता था की कहीं कोई और उनकी कला न सीख ले और कल को उन्ही से आगे निकल जाये इसी भय के चलते आज भी एक व्यापारी अपनी ही जाती के लोगो को अपने साथ मिलाता है और आज सभी जानते है किस वर्ग का व्यापार में सबसे ज्यादा हस्तक्षेप है।

जातिवाद का ज़हर सबसे ज्यादा शूद्र जाति के लिए लोगो के दिमाग में भरा हुआ है एक मनुष्य दुसरे मनुष्य को इतना अधिक पतित समझे की उसको छुने से इंकार करे यह सोच समाज की ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण इंसानियत का पतन कर देने वाली है। दलित लोग जिन्हें कई अन्य घ्रणित एव अपमानजनक नामों से संबोधित किया जाता है इनके कार्य की सराहना न कर इनको सबसे अलग कर दिया गया और एक समय ऐसा भी आया की इन्हें ख़त्म करने की कोशिश भी की गयी। यह वर्ग सबसे अधिक कष्टों से गुज़ारा और गुज़र रहा है इनके जीवन संघर्ष को सोच कर रूह काँप जाती है और शर्म आती है की हम खुद को इन्सान कहते है। आज भी अपनी मेहनत और लगन से जो व्यक्ति अच्छे पद पर जा पहुचता है उसे अपने साथी और अपने वरिष्ठ से अपमानजनक टिपण्णी सुनने को मिलती है। कोई दलित अधिकारी अपने द्वारा किये गए कार्यों के बल पर कभी पदोन्नति नहीं पाता जबकि कोई भी अन्य जाति का अधिकारी बिना किसी कार्य के बावजूद चापलूसी कर पदोन्नति पा लेता है इसी भेद-भाव और अराजकता के चलते डॉ भीम राव अम्बेडकर द्वारा दलित समाज के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी लेकिन यह भी सत्ताधारियों और कट्टरपंथियों को हज़म नहीं हो रहा और आरक्षण समाप्त करने की कोशिश की जा रही है।

मैं फिर कहूँगी की बात सिर्फ एक जाति विशेष की नहीं अपितु सभी जातियों और सभी वर्गों की है। दलित वर्ग की बात ज्यादातर इसलिए की जाती है क्यूंकि इनका होना हर तरह से लोगो द्वारा नाकारा गया है इसलिए ये ज़रूरी हो जाता है की इन्हें विशेष महत्व दिया जाये और इनकी स्थिति को सुधारने के प्रयास किये जायें।

आम तौर मान लिया गया है की जो लोग गरीब है वो दलित है। दलित होना सभी को एक ही चीज़ लगता है जबकि बहुत से लोग कहते है की हम भी गरीबी से गुजरे है और इस मुद्दे को आरक्षण से जोड़ दिया गया है जबकि दलित होना अलग बात है जिसे कुछ लोग मानते नहीं और कुछ को इस बारे में जानकारी नहीं है जिस वजह से वह सभी आरक्षण और दलितों के खिलाफ हो जाते है इसी तरह कुछ दलित लोग अपनी हालत का ज़िम्मेदार सवर्णों को मानते है और उनके प्रति तिरस्कार की भावना रखते है जबकि दोनों ही बातें अलग है और ठीक नहीं है ।

किसी भी जाति में इस प्रकार का टकराव नहीं होना चाहिये । एक दुसरे को समझने की कोशिश की जानी चाहिये । अंतरजातीय विवाह होने चाहिये। एक दुसरे से ज्यादा मिलना-जुलना चाहिये।

ये सभी समाज के विकास के मुद्दे है जिन पर राजनीति नहीं होनी चाहिये। जाति के नाम पर गन्दी राजनीति नहीं होनी चाहिये । गावो की तुलना में शहरों की ज़िन्दगी बेहतर है इस मामले में । रोजगार ज्यादा है पढ़े-लिखे लोग ज्यादा है जहाँ पुरानी शेहरी पीढ़ी जाती प्रथा के भेद को मानती है, तो युवा पीढ़ी और उससे पहले की पीढ़ी में इसका प्रभाव काफी कम देखने को मिलता है। लोग बहुत बदले है लेकिन फिर भी एक बात सबके ज़ेहन में बनी रहेती है फिर चाहे वो शहर हो या गाँव की ‘’अपने ही लोगो को ऊपर जाना चाहिये’’ अपनी ही जाति, अपने ही समाज को आगे आना चाहिये। शादियाँ भी लोग अपने ही लोगो में करते है और करना चाहते है। साथ खायेंगे-पियेंगे, साथ उठेंगे-बैठेंगे लेकिन शादी के समय अपने समाज-जाति से बाहर नहीं देखेंगे।

यहाँ इन्सान से इन्सान नहीं जुड़ता बल्कि जाति जुडती है। गांवों में तो हालत बहुत ही ख़राब है
यहाँ कुछ खास करने को नहीं है और लोग अपने ही खानदान से, जाति से पहचानते है और उसी में रमे रहना चाहते है जिसका बहुत बड़ा कारण शिक्षा का आभाव होना है और लकीर के फकीर होना भी। शायद इसी वजह से डॉ भीम राव अम्बेडकर ने माना की गाँव अज्ञानता के गढ़ है इसलिए उन्होंने कहा था ‘’गाँव छोड़ो’’ ।

मैं किसी जाति की वजह से किसी से प्रेम नहीं करती न किसी से नफरत मैं इन्सान के गुणों को सराहती हूँ और उसी के अनुसार उसके साथ देती हूँ और उसका साथ छोडती हूँ।

मैं किसी जाति विशेष के पक्ष में नहीं हूँ न ही किसी के विपक्ष में हूँ बल्कि मैं उस समाज के पक्ष में हूँ जिसमे हम रहते है और जिसके हाल-का-बदहाल होने से हमें फर्क पड़ता है। समाज ही हमें स्थायी रूप से प्रभावित करता है और मजबूर करता है की हम अपना व्यवहार बदले इसलिए यह बेहद आवश्यक है की समाज को बेहतर बनाने में हम अपना योगदान दें। सबसे बड़ी चीज़ जो इन्सान के पास है तो वो है उसकी सोच और फिर वो किसी दलित की सोच हो या किसी सवर्ण की, अगर सोच बदल जाये तो सब कुछ बदला जा सकता है, जीने का नजरिया और समाज को बदला जा सकता है।

सबसे महत्वपूर्ण है ज्ञान और आपसी समझ सहयोग जिसको अपना कर ही हम जीवन को बेहतर बना सकते है ।
कहते है न ‘’खुद को बदलो समाज खुद बदल जायेंगा’’ इसलिए जरुरी है की एक अच्छे समाज और एक बेहतर भविष्य के लिए हम अपनी सोच बदले ताकि समाज बदल सके।