Wednesday, April 8, 2015

तुम बीज हो...

तुम
बीज हो...

यदि तुममें प्राण हैं तो
कभी-न-कभी, कहीं-न-कहीं
तुम अपनी मिट्टी, अपना पानी और
अपना आसमां पा ही लोगी
और पैदा करोगी हजारों बीज
जो तुम्हारी छांव में अपनी पौध
तैयार करेंगे
पर पहले यकीन करो
की तुम प्राण हो, तुम जीवित हो और
तुम आगाज हो....


तुम
बीज हो...

Wednesday, April 1, 2015

अस्तित्वहीन होने से बेहतर है पहल करना...

अभी कुछ ही दिन हुए जब दीपिका पादुकोण का वीडियो ‘माई च्वॉयस’ वायरल हुआ और अब इसे लेकर विवाद शुरू हो गया है. वीडियो में दीपिका ये कहती दिखतीं हैं कि "यह उनका बदन है तो सोच भी उनकी है और फ़ैसला भी उनका है. कोई औरत किससे शादी करे, किससे यौन संबंध बनाए और किसके बच्चे की मां बनें, यह फ़ैसला उसे ही करना है, किसी दूसरे को नहीं."
इस वीडियो में कुछ भी ऐसा नहीं जो 'ज्यादा हो या अधिकार से अलग' हो और मैं इस वीडियो का समर्थन करती हूं. सवाल है कि इसमें विवाद का मुद्दा क्या है? यह वीडियो तो स्त्री सशक्तीकरण की बात करता है। इसका विरोध क्यों और कौन कर रहा है?

बेशक इस आवाज के पहले व्यापक स्त्री समाज के ज्यादातर हिस्से को अभी अपनी अस्मिता, गरिमा और आत्मसम्मान की लड़ाई लड़नी है, उसे पुरुष सत्ता से छीनना है. हमारी प्राथमिक लड़ाई यही होनी चाहिए. मगर दीपिका के 'माई च्वॉयस' की बात को उसके संदर्भों में देखा जाना चाहिए. सीधी-सी बात है। जो महिलाएं बचपन से 'ये करो, वो करो, ये न करो, वो न करो', 'ऐसे चलो, कम हंसो, धीरे बोलो, पुरुषों से दोस्ती नहीं, जल्दी शादी और फिर बच्चा, तलाक नहीं भुगतो, शादी से पहले कुछ नहीं, सेक्स सिर्फ पति के साथ, वह भी जब वह चाहे तभी, विधवा मतलब दुनिया ख़त्म, बुर्के-परदे में ढक कर रहो, पढ़ो-लिखो, पर रोटियां ही बनाओ और न जाने किस-किस तरह की मानसिकता के बीच पलती बढ़ती हैं और कभी भी अपने बारे में, अपने सुख के बारे में सोचती तक नहीं, अपने हिस्से के तमाम सुख वह अपने 'पति-परमेश्वर' को सौंप देती है। हर महिला इस पितृसत्तात्मक परिवेश में जन्मी/पली-बढ़ी है. पर इनमें से अधिकतर महिलाओं का जन्म ऐसे माहौल में नहीं हुआ, जिन्हें जन्म से ही अच्छा रहना, खाना, शिक्षा, खुला माहौल मिला, चुनने की आज़ादी मिली। इसलिए ऐसी महिलाएं अगर इस वीडियो का विरोध करें तो इसे कितना सही कहेंगे! खुद से अलग हो कर 'सभी के बारे में' सोचें.

इस वीडियो के जवाब में लगे हाथ पुरुषों का 'माई च्वॉयस-मेल वर्ज़न’ भी आ गया जो महिलाओं के इस 'मेरी पसंद' का 'मुंहतोड़ जवाब' बताया जा रहा है. लेकिन इसे सुनने के बाद मैं इसे निरा बकवास घोषित करती हूं। इस वीडियो में पुरुष कहते हैं, “यह मेरा बदन है और इसलिए इससे जुड़े फ़ैसले भी मेरे हैं. मैं रोज़ाना जिम जाऊं या तोंद रखूं मेरी मर्ज़ी, मेरा पड़ोसी इंजीनियर है, पर मैं नहीं, तो क्या हुआ? आख़िर मेरी गाड़ी कितनी बड़ी है, यही तो महत्वपूर्ण है!”
आपका बदन? आपके फैसले? जिम? तोंद? गाड़ी? सब बकवास! आप बदन छिपाते ही कब हैं जो आपके बदन पर सवाल पैदा हो? जब मन में आता है, जहां चाहे नंगे हो जाते हैं। आपके फैसले कौन-से हैं? नंगे घूमने के? जिम हर पुरुष नहीं जाता, न हर पुरुष की तोंद है. पड़ोसी जो भी हो, अधिकतर पुरुष इसकी परवाह ही कब करते हैं. और गाड़ी तो तब आएगी न, जब अच्छा कमा लिया जाए। ये फिर कहते हैं- “मैं प्रेमिकाएं बदलता रहूं या शाश्वत प्रेम करूं, मेरी मर्ज़ी. मेरा घर, मेरी गाड़ी बदलती रहेगी, पर तुम्हारे प्रति मेरा प्रेम हमेशा रहेगा. मैं देर रात घर लौटूं या सुबह, क्या फ़र्क पड़ता है? मैं किसी के साथ यौन संबंध रखूं और किसी के साथ शादी करूं या नहीं करूं, मेरी मर्ज़ी. मैं विवाह पूर्व और विवाहेतर यौन संबंध रखूं, मेरी मर्ज़ी.
इन बातों पर अपना दिमाग खर्च करना बेमानी है। लेकिन इससे इतना जाहिर हुआ है कि छटपटाहट से भरी हड़बड़ी में पुरुषों की ओर से जो यह जवाब आया है, उसके मूल से महज हताशा और मर्दाना कुंठा बोल रही है, और इस पर सिर्फ हंसा ही जाना चाहिए।
ये निरर्थक बातें हैं। प्रेमिकाएं बदलना तो यों ही पुरुष-फैशन है, आज से नहीं, पता नहीं कब से। मर्दों की मर्ज़ी सेकेण्ड में बदलती रही है, घर भी, गाड़ी भी और प्रेम भी. हां, आप किसी को गंभीरता से चाहें, ऐसा कम ही होता है. आप घर लेट ही आते हैं अक्सर और आपको माँ, बहन, बीवी कोई कुछ भी कहे कभी कोई फर्क नहीं पड़ा और ये भी जमानों से. आप सेक्स के लिए शादी का कब इंतज़ार करते हैं? और शादी भी तभी करते हैं जब परिवार का दबाव हो. जिम्मेदारियां आपके बस की नहीं (अधिकतर पुरुष ऐसा ही करते हैं)। आप शादी से पहले और शादी के बाद भी एक नहीं, एक से अधिक यौन सम्बन्ध रखते हैं और यह भी आप शान से अपने मित्रों को बताते हैं. तो इसमें आपकी पंसद क्या? यह तो आपकी वास्तविक इच्छा है।
मर्दवादी व्यवस्था में तैयार मानसिकता का साम्राज्य समाज के बनने के बाद से ही रहा है और जिस पसंद जिस च्वॉयस की बात ये वीडियो करता है वह सभी पुरुषों को 'अधिकार स्वरूप' पीढ़ी-दर-पीढ़ी 'सामाजिक स्वभाव' के तौर पर मिलते आ रहे हैं. अभावों में महिलाएं जी रहीं हैं. अधिकार उन्हें चाहिए. जोर-जबरदस्ती, गंदी घटिया सोच का सामना महिलाएं करतीं हैं, हक़ पुरुष जमाता है महिलाओं पर। आज़ादी उन्हें चाहिये. बात यहां सेक्स की आज़ादी की नहीं बल्कि महिलाओं की चाह की है, अस्मिता, गरिमा और अपने बारे में फैसले पर अपने अधिकार की है। विरोध परतंत्रता का, पितृसत्ता का, घुटन का, अधिकारों के हनन का, जानवरों जैसे व्यवहार का, विरोध मर्दवादी सोच का.

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