Wednesday, March 26, 2014

नारी....... ''ज़िम्मेदारी और अधिकार''

नारी होना अपने आप में एक गौरव कि बात है और उस गरिमा को बनायें रखना नारी का व्यवहार है, आज बेशक़ नारी अपने हक़ और अधिकार के लिए जागरूक हुई है फिर भी अपने हिस्से की आज़ादी के लिए उसे संघर्ष करना अभी बाक़ी है।
आज़ादी इस मायने में नहीं की अपनी मन-मर्ज़ी संग ज़िन्दगी जी जाएँ …… हाँ ये भी एक मायने है आज़ादी के पर पूर्ण आज़ादी के नहीं।

आज़ादी उस मायने में जिसमें वो ये जान सकें की उसका भविष्य क्या है …. उसके लिए कार्य कर सकें, अपने पैरोँ पर खड़ी हो सकें, अपनी सुरक्षा, अपनी असुरक्षा के लिए आवाज़ उठा सकें। आज़ादी उस मायने में की उसे हिस्सा मिले खुल कर साँस लेने का वहाँ भी जहाँ सौ निगाहें उस पर टिकी हो, वहाँ पर जहाँ उसके लिए नियम बनायें गयें हो, वहाँ जहाँ वो ये महसूस कर सकें की वो भी इंसान है और पुरुष कि तरहा ही इस दुनिया में जी सकती है, साँस ले सकती है।
यह भी कहना गलत न होगा कि कुछ महिलायें अपनी मिली आज़ादी का गलत प्रयोग करती है। 

जिसे वह अक्सर ''खुल कर जीना और आज़ादी’’ कहती है जो सही अर्थ में आज़ादी का दुरपयोग है। अपनी जिम्मेदारियों से बचना, संस्कारों से पल्ले झाड़ना, आधुनिकता का झूठा ढोंग करना, बड़ो की अवेहलना और अपमानित करना यहीं नहीं इसके साथ-साथ सुधार के भाषण देना और खुद को उनसे कोसों दूर रखना इसे ''आज़ादी और स्वतन्त्रता'' कहना और उसके लिए लड़ना निर्थक है, बेमतलब है, अपनी सुविधा और आज़ादी का दुरपयोग है या कहना होगा की जायज़ की वजह दे कर नाजायज़ व्यवहार करना है।

इसी के चलते पुरुष वर्ग नारी की आज़ादी के ख़िलाफ़ हुआ जिसका परिणाम सभी महिलाओं के लिए उलट हुआ है।

पुरुष वर्ग महिलाओं की बढ़ती हिस्सेदारी से खुश हुए है और उन्हें सराहते भी है जो एक स्वस्थ मानसिकता का प्रतीक है पर अभी भी इस वर्ग का बड़ा हिस्सा कुरूप मानसिकता का शिकार है और नहीं चाहता इस बदलाव को, उन्हें डर है की कहीं उनका आधिपत्य समाप्त न हो जायें और इसलिए अपनी खीज़ अत्याचार कर निकालते है। पढ़े-लिखें, शिक्षित पुरुष महिलाओं का शारीरिक और मानसिक शोषण करते है उनके मान-सम्मान को कुचलने का प्रयास करते है और जब इससे भी उनको सुकून नहीं मिलता तो बर्बरता की हदें लाँघ उन्हें मार देते है।

आज कितने ही मुद्दे है समाज में जो इस खीज़ का उदहारण है सभी के सामने, किसी स्त्री का स्वतन्त्र होना, आत्मनिर्भर होना, काम करना, अपनी ज़िन्दगी को ख़ुशी से जीना ये सब इस कुरूप पुरुष वर्ग को खटकता जा रहा है इसके चलते रोज़ ही बल्कि हर दिन, हर पहर कोई न कोई महिला, लड़की इस खीज़ का शिकार बनती है। घरों में, दफ्तरों में, बाज़ार में कहीं भी ये घटिया सोच उन्हें अपना ग्रास बनातें है। दुखद है ये सब, बहुत दुखद ……

पुरुष समाज खुद को ताकतवर कहता है, सदैव महिलाओं से ख़ुद को श्रेष्ठ साबित करना चाहता है पर कैसेइस तरह से ........इन घटिया और तुच्छ हरकतों से।

ईश्वर ने पुरुष को ताकतवर बनाया जिससे वो अपनी ज़िम्मेदारी और अपने परिवार को सुरक्षा प्रदान कर सकें, उसे इस काबिल बनाया की उस पर निर्भर किया जा सके, नारी को कमज़ोर बनाया क्यूँकि वो कोमल है व्यवहार से उसे अपनी कोमलता और प्रेम से अपने परिवार और उनसे जुड़े लोगो को अपने आचरण से ताउम्र बांधे रखना है पर इसका मतलब ये नहीं की वो अबला हो गयी, वो लड़ नहीं सकती।

पुरुष ने अपनी गरिमा को कलंकित कर दिया है अपने कार्यों से तो उसे क्यूँ वो दर्ज़ा दिया जायें जिसके लिए वो इस दुनिया में प्रयासरत है । दर्ज़ा दिया जाना और उसे बनाये रखना दोनों ही पुरुष की ज़िम्मेदारी है और जब ये ज़िम्मेदारी वो नहीं निभा सकते तो उन्हें उसके लिए लड़ना-झगड़ना, बर्बरता नहीं करनी चाहिए। पुरुष समाज को गलतफहमी रही है नारी को ले कर की वो घर की चार-दीवारी के लिए बनी है, उसके अपमान और भीख में मिले स्नेह के लिए बनी है जो आज के समय में स्पष्ट रूप से दूर हो चुकी है।

पुरुष समाज से जब अपनी ज़िम्मेदारी नहीं सम्भाली जाती तो उसे बिगाड़े भी नहीं।
आज महिलायें इस काबिल है की एक परिवार चला सकें और किसी पुरुष से बेहतर चला सकें, उन्हें किसी ऐसे सहारे की जरुरत नहीं है जिसकी वो मोहताज़ रहें और उसके अत्याचार भी सहें। ये पुरुष समाज के लिए उनके द्वारा किये गये वार का मुँह तोड़ जवाब है एक करारा तमाचा है जिसे उन्हें अब न चाहतें हुए भी सेहन करना है।  पुरुष समाज ने जिसे अपना अभिमान कह कर उसके लिए लड़ता रहा है वो अभिमान नहीं उनका स्वार्थी होना है, अपने वर्चस्व के लिए खतरा महसूस करना है। 
एक नारी, महिला, स्त्री और जिस शब्द से इस दिव्य आत्मा को सुशोभित किया जायें उसका अर्थ अपराजिता ही मिलता है जिसका उदाहरण आज कई तरीकों से हमारे सामने है। एक परिवार में जब निठल्ला पति, बाप या भाई होता है तब उसके सहारे न रहते हुए घर की माँ, बेटी और बीवी अपने परिवार कि ज़िम्मेदारी उठाती है उसी प्रकार से आज यदि ये पुरुष समाज अपने निठल्ले इरादों और घटिया सोच के साथ जीता रहा तो निश्चित ही महिलाओं को उनकी ज़िम्मेदारियाँ और उनका सामाजिक वर्चस्व हथियाना होगा जो किसी भी तरहा से गलत नहीं है। जो काम नहीं करता उसको हटाना ही पड़ता है ताकि व्यवस्था बनी रह सके ठीक उसी प्रकार से आज महिलाओं को अपने नारी होने का उसकी गरिमा को बनायें रखने का मौका मिला है जो यक़ीनन नारी पूरा कर रहीं है। मुश्किलें आती है और आएँगी भी आगे मगर एक नारी होना अपने आप में ही शक्ति का रूप होना है। 
हम चलेंगे, गिरेंगे, उठेंगे और फिर चलेंगे और चलते रहेंगे।


नारी सम्मान में मेरी कुछ पंक्तियाँ........

मैं प्रकृति मैं दुनियाँ
फिर भी कमज़ोर और असहाय
इसलिए नहीं की मुझमें साहस नहीं
इसलिए की मुझमें नफ़रत नहीं

मैं जननी मैं देवी
फिर भी पैरों तले मेरी ज़बां
इसलिए नहीं की मुझमें आवाज़ नहीं
इसलिए की मुझमें शोर नहीं

मैं चाहत मैं दुआ
फिर भी बदचलन और कुल्टा
इसलिए नहीं की मुझमें आग नहीं
इसलिए की मुझमें जलन नहीं

मैं श्रृष्टि की रचनाकार
फिर भी हाथों से बेक़ार, पैरों से लाचार
इसलिए नहीं की मुझमे ज़ज्बा नहीं
इसलिए की मैं निर्थक नहीं, स्वार्थी नहीं, कठोर नहीं

 मैं औरत हूँ
शांत हूँ इसलिए दुनिया है
न करो इतना विवश की हहाकार मच जाये
न करो इतना अत्याचार की बाग़ लूट जाये

मैं बनाती हूँ इसलिए मिटा भी सकती हूँ
पर मैं कुम्हार हूँ, ठेकेदार नहीं

जो करती व्यापार नहीं……

Tuesday, March 11, 2014

मेरी होली

बचपन में होली यानी हमारा रंगबिरंगा खेल, पापड़ मिठाइयाँ, मेहमानों का आना जाना और रात को गाना बजाना। होली के आने से पहले ही तैयारियाँ शुरू हो जाया करती थी और होलिका दहन की रात के जगराते से ले कर अगले दिन की पूरी होली खेलन तक मन में उछलकूद बनी रहती थी। सुबह से शाम तक लोगो का आना जाना लगा रहता था, कोई पूछ कर नहीं आता था, कई बार तो वो लोग आते मिलने जिन्हें हम जानते या पहचानतें भी नहीं थे। अच्छा लगता था लोगो का आना, माँ और पिताजी से आशीर्वाद लेना, उनका यूँ स्नेह और सम्मान देना ही मुझे सालभर होली का इंतज़ार करवाता था, उस दिन सही मायने में पता लगता था समाज में रहना, लोगो के बीच रहना क्या होता है। होली पंसद थी इसलिए भी कि हम बच्चों के लिए कोई रोकटोक नहीं होती थी यहाँ खेलों, वहाँ जाओ बस खेल था रंगबिरंगा पानी से भरा इंद्रधनुषी खेल।
जब युवावस्था तक आये तो होली बदल गयी और उसके मायने भी, होली यानी छुट्टी, आना जाना, अच्छे पकवान और सिर्फ गुलाल। शायद हम बड़े होगये थे या होली पुरानी हो गयी थी। बदलाव तो आया पर कैसे पता नहीं चला। होलिका देहन प्रदुषण लगने लगा और होली खेलना ऐलर्जी का मुख्य कारण इसलिए सिर्फ होली देखना शुरू किया। घर बदल गया था अब हम कॉलोनी में रहते थे और यहाँ सोशल स्टेटस के हिसाब से होली खेली जाती थी। 
शुरुआत में जब हम नये थे यहाँ तब सब नया था होली भी नयी थी पंडाल लगा कर गीत सँगीत का आयोजन किया जाता था ठंडाई और कई अन्य व्यंजन सजाये जाते थे मेजों पर। बारी बारी से हर परिवार के लोगो को गुलाल का तिलक लगा कर बधाईयाँ दी जाती थी जैसे सबको लाईन में लगा कर ये बताया जाता था की ''आपको पता है आज त्यौहार है ''....... हास्यपद लगता था ये सब
उस एक होली के दिन में कॉलोनी के बनावटी लोग एक दूसरे से बातें किया करते थे जो कि उनके स्टेटस सिम्बल को मेन्टेन करने के लिए जरुरी होता था।
बातें भी ऐसी जिनमें सिर्फ उनके रुतबे का प्रदर्शन होता था, नयी गाड़ी, विदेशी टूर, बच्चे की महँगी पढ़ाई और राजनीती का रोना जो हो तो हर बात अधूरी लगती इन बड़े लोगो की। शुरुआत के दो साल यूँही त्यौहार मनाया गया उसके बाद सभी परिवार एक दूसरे पड़ोसी परिवार के प्रतियोगी बन गए जिसमें शीत युद्ध हमेंशा ज़ारी रहता था इसलिए अब जब होली आती तब गिनती के ग्रुप वाले परिवार एकत्र होते और उसी बनावटी अंदाज़ में होली मनाया करते।
ये भी समय बीता और आज होली का मतलब सिर्फ छुट्टी है कोई बुलावा नहीं क्यूँकि हमारा परिवार किसी ग्रुप में नहीं, कोई पकवान नहीं क्यूँकि कोई खाता ही नहीं सब हेल्थ कॉन्शस हो गए है, कहीं जाना नहीं होता क्यूँकि अब कोई घर नहीं आता सिर्फ घर में रहना और घर की छत से, बालकॉनी से ग्रुपिज़म की स्क्रिप्टिड होली देखना और स्टेट्स को मेन्टेन करते नाटक देखना होली रह गया है।
सोचती हूँ हम छोटे अच्छे थे या अपने पहले वाले घर में अच्छे थे क्यूँकि कई बार बड़ा होना और परिवर्तन होना नीरसता लाता है जीवन में, समाज से अलग कर देता है, छोटी छोटी खुशियों के भी मायने बदल देता है।
ऐसा नहीं था कभी की होली अच्छी नहीं लगी या होली का त्यौहार मनाया नहीं पर वो होली खेलना और त्यौहार मनाना अब शायद मिडिल क्लास हो गया, छोटी सोच हो गया और टाइम वेस्टिंग हो गया। 
पर क्या सच में ऐसा है, क्या वाकई होली की तरहा सभी त्यौहार और मिलना जुलना भी स्टेटस सिम्बल हो गया है, जिसे मेन्टेन करने के लिए समाज से दुरी बना ली जाती है और ये दिखाया जाता है की यही उनकी होली है जो यूनिक है, ख़ास है और बड़े लोगो कि होली है।
ये सवाल हर बार कि तरहा इस बार भी मेरे मन में होली के आगमन को चिढ़ा रहा है जिससे में खुद को विचलित होने से नहीं बचा पाती जिसे अपनी कलम से कई बार शांत करने की कोशिश करती हूँ।

होली के विषय में अपने शब्दों में सिर्फ यही कहना चाहती हूँ……..

मनाओ
खुशियाँ अपनों के साथ
मिल कर रहो
सब के साथ

रंग है कई
तो रिश्ते भी
कई रखो,
निभाओ सभी
ईमानदारी के साथ

है दिन ये
बहुत मिलनसार
बाटो प्यार
सब के साथ

खाओ पियो
ओरो के घर -बार,
अपनी खुशी
उनके साथ

कभी
रंजिश जो
किसी ने रखी,
छोड़ो भूलो सब
पकड़ो उसके हाथ

होली
नाम रंगों का
ही नहीं
एक सार डुबो ले जो
ऐसा ये खुशियों का घाट

अपने
दिल -दरवाज़े
खोल कर रखो
देखो मिल जाये
शायद कोई बिछड़ा यार

इस होली
खुशियाँ हो अपार

आप सभी को
प्यार भरा होली का
ये त्यौहार मुबारक
बहुत सारी दुआओं के साथ.........