Friday, July 10, 2015

अब तेरा क्या होगा ‘मनरेगा’ !!

भारत के ग़रीब कामगार तबक़े की ज़िंदगी पर गहरा असर छोड़ने वाले महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहना मिली लेकिन आज यह योजना संकट में है.

साल 2005 में पारित इस योजना से भारत के सबसे पिछड़े और ग्रामीण इलाक़ों में रोज़गार की स्थिति में काफ़ी सुधार आया लेकिन वर्तमान सरकार इसे लेकर उत्साहित नहीं है. जिसके चलते इस कार्यक्रम को धन आवंटन की कमी से जूझना पड़ा रहा है.
यह अधिनियम देश की नीतियों में एक बुनियादी बदलाव दिखाता है. रोजग़ार के नीतिगत प्रावधानों के रहते हुए यह अधिनियम भारत के ग्रामीण इलाक़ों में अकुशल श्रमिकों को 100 दिन के रोजग़ार को संविधान प्रदत्त अधिकार बनाता है. जिसके तहत किसी भी ग्रामीण को ज़रूरत पड़ने पर किसी लोक निर्माण परियोजना में काम दिया जा सकता है.
मनरेगा में पहले की सभी योजनाओं की तुलना में लोगों को ज़्यादा रोज़गार मिले. जबकि औसतन हर व्यक्ति को अधिनियम में निर्धारित 100 दिनों से कम ही काम मिला.

साल 2006-07 के प्रति व्यक्ति कार्य दिवस 43 दिन से साल 2009-10 में प्रति व्यक्ति 54 दिन रहा. जिसके बाद से इसमें गिरावट आई है. इसके बाद भी योजना में शामिल परिवारों और इससे मिलने वाले रोज़गार के दिनों की संख्या काफ़ी प्रभावशाली है. आधिकारिक आंकड़ों द्वारा साल 2008-09 में क़रीब 23.10 अरब प्रति व्यक्ति कार्य दिवस रोज़गार मिला जिससे हर साल लगभग पाँच करोड़ परिवारों को लाभ मिला. इसमें से क़रीब आधे प्रति व्यक्ति कार्य दिवस महिलाओं को मिले.

कई अध्ययनोंनुसार मनरेगा से ग्रामीण मज़दूरी और ग़रीबी पर सकारात्मक असर पड़ा है, रोज़गार के लिए पलायन रुका है, महिलाओं और एससी-एसटी का सशक्तिकरण हुआ है, ग्रामीण आधारभूत ढांचे का विकास हुआ है, उत्पादन क्षमता और संस्थानिक क्षमता बेहतर हुई हैं.

इस कार्यक्रम की वजह से स्त्रियों और पुरुषों के न्यूनतम मज़दूरी के अंतर में भी कमी आई है. महिलाओं को इसकी वजह से न्यूनतम मज़दूरी के लगभग बराबर मज़दूरी मिलने लगी है.

शोधकर्ताओं ने कृषि उत्पादकता पर ध्यान केंद्रित करते हुए अनुमान लगाया कि सही मायने में मनरेगा के तहत खुदे कुओं के वित्तीय लाभ की दर छह प्रतिशत तक है. लाभ की यह दर कई औद्योगिक परियोजनाओं के मुक़ाबले बहुत अच्छी है.

प्रधानमंत्री के गृह प्रदेश गुजरात में इस कार्यक्रम का प्रदर्शन फीका रहा है. इसलिए मौजूदा सरकार भी मनरेगा को लेकर ज़्यादा उत्साहित नहीं है. सरकार मनरेगा को फिर से 200 ज़िलों तक सीमित करना चाहती है और इसके लिए सभी प्रदेशों (भाजपा शासित समेत) को आवंटित की जाने वाली धनराशि में भी कटौती की गई है. सरकार ने कार्यक्रम के तहत मैटेरियल कम्पोनेंट का अनुपात भी बढ़ा दिया है जिससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा ही मिलेगा.
आधिकारिक आंकड़ों और फ़ील्ड रिपोर्टों के अनुसार केंद्र में भाजपा सरकार आने के बाद से मनरेगा कार्यक्रम के प्रदर्शन में गिरावट आई है. साल 2009-10 में नरेगा के लिए 52 हज़ार करोड़ रुपये का बजट था जिसे 33,000 करोड़ रुपए कर दिया गया है.

इस कार्यक्रम के लिए सबसे बड़ी समस्या बक़ाया मज़दूरी बनती जा रही है जो इस समय क़रीब 75 प्रतिशत हो चुकी है. कई जगहों पर फंड की कमी, बढ़ती बक़ाया मज़दूरी और इसके भविष्य के प्रति अनिश्चितता के कारण यह कार्यक्रम लगभग थम गया है.

अच्छे परिणामों के बावजूद मरनेगा का भविष्य अनिश्चित है. मौजूदा सरकार इसे लेकर कोई उत्साह नहीं दिखा रही है.
महाराष्ट्र में मनरेगा के तहत जिन 4100 जगहों पर काम किया गया, वहां के अध्ययनों में पाया गया, "60 फीसदी काम से कृषि क्षेत्र को मदद मिली है जबकि 75 फीसदी काम प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर कृषि से जुड़ा हुआ था." वर्ल्ड बैंक ने 2009 में मनरेगा को 'विकास में एक बाधा' करार दिया था लेकिन 2014 में उसकी एक रिपोर्ट में इसे 'ग्रामीण विकास का एक शानदार उदाहरण' भी कहा.

एक तरफ तो मज़दूरी की दर बढ़ गई तो दूसरी तरफ़ बजट में कटौती कर दी गई. इसकी वजह से जितना काम किया जा सकता है, वही घट गया है. और इस वजह से लोगों का काफी नुकसान हो रहा है, क्योंकि जैसे लोग इसके बारे में सीख रहे थे, जानने लगे थे, वैसे ही काम कम होने, काम मिलना बंद हो गया.

लाखों महिलाएं और पुरुष मनरेगा के चलते ग्राम रोज़गार सेवक, प्रोग्राम ऑफिसर, इंजीनियर, डाटा एंट्री ऑपरेटर और सोशल ऑडिटर के रूप में तकनीक, प्रबंधन और सामाजिक कौशल सीख रहे हैं. मनरेगा में ज्यादातर काम करने वाले ठेका मज़दूर हैं, जो भविष्य में इसे अपने हुनर के रूप में प्रयोग में ला सकते हैं. इसे बंद करने से बेहतर होगा कि मनरेगा में निहित कौशल निर्माण की गतिविधियों को आगे बढ़ाया जाए. इस पूरे प्रोग्राम को आगे ले जाने का यही सबसे बेहतर उपाय है.







प्रियंका.......

डिजिटल इंडिया और भारत

दिल्ली के कनॉट पेलेस, कॉफ़ी हाउस के गेट के सामने कुछ गरीब परिवार लोगों का अधनंगा झुंड, एक छोटू लेपटोप(पाम टॉप) पर फिल्मी गाने, जय श्री कृष्णा, सास बहु सीरियल देखेते हुए मिल जायेगा. ये लोग उस पर टीवी चला कर देखते हैं और वहीँ उसी चबूतरें पर अपने गंदे चीथड़ों के साथ सो जाते हैं. 1 जुलाई को जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने डिजिटल इंडिया सप्ताह की घोषणा की, उस वक्त मुझे इस परिवार का ध्यान आया.

जिनके सर पर छत नहीं, दो वक़्त की रोटी का पता नहीं, बदन पर कतरनों के अलावा कालिख और कुछ नही उनके पास लेपटोप, वो भी टीवी जैसी सुविधा के साथ. वाकई यही इंडिया है डिजिटल इंडिया. ऐसा ही तो इंडिया चाहते हैं हमारे प्रधानमंत्री महोदय. जरुरत के समय जहाँ शहरों में ऑनलाइन टिकट नहीं मिलती, बैंक इनफार्मेशन नहीं मिलती, हॉस्पिटैलिटी कि सुविधाएं नहीं मिलती वहां देश के आखिरी घर तक इन्टरनेट पहुँचाने की यह योजना कितनी कारगर होगी इस पर संदेह है.

प्रधानमंत्री 'डिजिटल इंडिया' कार्यक्रम की घोषणा के समय कहते हैं कि 'शहर और गांव में सुविधा के कारण जो खाई पैदा होती है, उससे भी भयंकर स्थिति डिजिटल डिवाइड के कारण पैदा होती है.' अफसोस है कि इसका समाधान उन्होंने 'डिजिटल इंडिया' में खोजा. 'डिजिटल इंडिया' के जरिये अमीर और गरीब के बीच की खाई पाटने की कोशिश खयाली पुलाव जैसी है. भारत में बहुसंख्या ऐसी है जिसके पास सूचना के कोई साधन नहीं हैं. इसके मूल में अशिक्षा और गरीबी है. सूचना गरीबों तक सूचना पहुंचाने के लिए पहला उपाय उन्हें शिक्षित करना है. प्रधानमंत्री ने शिक्षा का बजट 16.5 प्रतिशत घटाने के सिवा शिक्षा पर कोई उल्लेखनीय पहलकदमी नहीं की है. शिक्षा के बिना ई-गवर्नेंस या मोबाइल गवर्नेंस की आम आदमी के लिए क्या उपयोगिता होगी? प्रधानमंत्री इन्टनेट से पहले शिक्षा की बात क्यों नहीं करते? 'डिजिटल इंडिया' से पहले 'एजुकेट इंडिया' पर बात क्यों नहीं करते?

सरकारी आंकड़े में 95 फीसदी स्कूल आरटीई के मानकों पर फेल हैं. 'डिजिटल भारत' के लिए साक्षर भारत चाहिए. ग्रामीण भारत के जिन स्कूलों में टाट पट्टी और ब्लैक बोर्ड नहीं हैं, वे 'डिजिटल इंडिया' को ओढ़ेंगे या बिछाएंगे? जिस देश को आज सस्ती दालें, सब्जियां और अन्य सेवाएं चाहिए उन्हें आप इन्टरनेट की सस्ती सुविधा देने की बात करते हैं तो आश्चर्य नहीं हंसी आती है.

डिजिटल इंडिया में बीएसएनएल और MTNL को छोड़ बाकी मोबाइल कंपनियों को इसका हिस्सा बनाया गया ताकि पहले सस्ता फिर मंहगा इन्टरनेट कर निजी कंपनियों का खजाना बढ़ाया जा सके. सबसे बड़ी बात इस सुविधा का इस्तेमाल वही कर पायेगा जिसका आधार कार्ड होगा. जिसके लिए सुप्रीमकोर्ट ने पहले ही कहा है कि, आधार कार्ड का कोई आधार नहीं है. और अब जब डिजिटल इंडिया आया है तो बिना आधार के ये बेकार है. यानी अब आधार बनवाएं तब डिजिटल हो पाएं.

भारत की कुल आबादी का 20% लोग ही इन्टरनेट इस्तेमाल करते हैं जिनमें भी सिर्फ 10% ही इन्टरनेट के जानकार है. (असल डिजिटल इंडिया तब होगा जब हम साउथ कोरिया की बराबरी करेंगे जहाँ 98% लोग इन्टरनेट इस्तेमाल करते हैं)

भारत का डाउनलोडिंग स्पीड में विश्व में 53वां स्थान है माने 2MBPS की स्पीड से डाउनलोडिंग होती है जो की सिर्फ शहरों में नेटवर्क की वजह से मुमकिन है. अब ये गाँव तक कैसे मुमकिन होगा ये सोचने का विषय है.

हर माह लगभग 500 रुपए इन्टरनेट में खर्च करने वाला मोबाइल यूजर शहरों में मुमकिन भी हो लेकिन गाँव में जहाँ दो वक़्त की रोटी के लिए भी दिन-रात का संघर्ष है वहां इस सुविधा का होना न होना एक ही बात है.

भारत देश में आज भी 40 करोड़ लोगों के पास पर्याप्त बिजली की सुविधा नहीं है जो यूएस और कनाडा की आबादी के बराबर है. ऐसे में कैसे पूरा होगा डिजिटल इंडिया का यह महेंगा ख्वाब? देश कि वास्तविक जरूरतों को नज़रंदाज़ कर यदि डिजिटल इंडिया सम्पूर्ण ग्रामीण भारत को रोटी, कपड़ा, मकान और शिक्षा दे सके तो निश्चित रूप से इस योजना को लागू करें. वरना अच्छे दिन तो पहले ही भारत भुगत रहा है.




प्रियंका.....