Monday, December 29, 2014

कुछ तो भविष्य की चिंता करो

दिल्ली की भयंकर सर्दी में जहाँ हाथ-पैर चलाने का मन नहीं करता उस स्थति में सडकों पर ठिठुरते बेघर लोगों को मरता देख कलेजा काँप जाता है.
एक तरफ जहाँ मोदी के विकास और सुशासन जैसे विचारों से सारी समझदार बिरादरी छाती फुलाये फिरती हैं वहीँ दूसरी तरफ धर्मांतरण और घर वापसी के बे-सर-पैर के मुद्दों पर सरकार अपनी ऊर्जा नष्ट कर रही है. विकास और सुशासन ही दो रास्ते है जो देश को प्रगति कि ओर ले जा सकते है जबकि धर्मांतरण जैसे मुद्दे विकास और सुशासन दोनों के लिए ही घातक हैं तो इसको रोकने के लिए क्यों कुछ नही किया जा रहा है? क्या घर वापसी ही देश की पहली प्राथमिकता है? उस पर प्रधानमंत्री का मौन. क्या ये बढ़ावा है इन मुद्दों के लिए या लापरवाही है देश के प्रति?
क्यों इन अच्छे दिनों के वादों को मोदी भूल गये ? क्या घर वापसी से ज्यादा जरुरी ये नहीं कि हर व्यक्ति के पास घर हो ? क्या विज्ञान में सींग लगा कर ही देश कि संस्कृति और इतिहास अमर कहलायेंगे? क्या देश इतिहास और धर्म से बनता है? क्या देश की जनता सिर्फ डुगडुगी बजाने भर के लिए रह गयी है??
और क्या हम सब इतने मजबूर है जो अपने सामने ठण्ड से मरते लोगों को नज़रंदाज़ कर, कुछ बेतुके मुद्दों पर अपना भी समय बर्बाद रहें और इन तमाशेबाजों को हर साल वोट देते रहें??

Wednesday, December 24, 2014

दिल्ली लाइफ-8

'पीके' देखी और ऑफिस में हुई एक घटना याद हो आई...

अख़बार में विज्ञापन देने के लिए ऑफिस में एक तांत्रिक बाबा आये और सर को विज्ञापन छपवाने के लिए आग्रह किया. सर ने पूछा बाबा आप क्या क्या विध्या जानते है और क्या ये कार्य करतीं हैं ? बाबा ने स्टाइल मार के पैर के ऊपर पैर रख तसल्ली से कहा- हम सभी प्रकार के कष्टों का निवारण करते हैं. पूजा-हवन यज्ञ, संतान प्राप्ति, मनचाही शादी, वशीकरण, ग्रह शांति, सौतन दुश्मन खात्मा, किया-कराया, खोया प्यार पाना, कालसर्प पूजा, गया धन/लौटरी सट्टा आदि कई कार्य जादूटोना, तांत्रिक और समाधी द्वारा पूर्ण करते हैं.
सर, मैं और हमारे एक और साथी मित्र रवि उनकी बातें सुन पहले तो अपने अपने सर खुजलाने लगे फिर एक दुसरे को देख वाह की व्याख्या में मुस्कुराए... सर ने गला साफ़ कर बाबा से कहा- तो ये बतायें बाबा आप इतना सब जो करते है क्या ये सभी शर्तिया पूरा होता है या कभी ऐसा भी हुआ है कि काम ना बना हो ? बाबा तपाक से बोला - नहीं ...कभी नहीं ...आज तक ऐसा कभी नही हुआ ....ये गारंटीड होता ही है ....सर ने फिर शांत स्वर में पूछा - तो बाबा आप ये देश में हो रहे दंगे, आतंकवादी हमले, लूट-पाट और देश कि सुरक्षा के लिए हवन करे, समाधी लगायें, जादू करें, तंत्र विध्या से वशीकरण कर मोदी का दिमाग ठीक करें उसे वशीकरण कर देश के हित में कार्य करें, मैं फ्री में आपका विज्ञापन छापूंगा और इस कार्य के लिए जो खर्चा होगा उसका भी प्रबंध कर दूंगा...कहिये करेंगे ??
सर की बात सुन बाबा के कान, बाल और वह स्वयं खड़े हो गये और बोले ये ईश्वर की इच्छा है मैं इसमें बाधा क्यूँ बनू और निकल लिए. और आज पीके देख ये बाबा बड़े याद आये.

तो भाई बात जे कि पीके बेहतरीन फ़िल्म है और समाज को मनोरंजन के साथ अच्छा सन्देश भी देती है. तमाम ढोंगियों को एक बार ये फ़िल्म जरुर देखनी चाहिये और इस भरी सर्दी में आशाराम और रामपाल को भी पिकनिक के बहाने ही सही पीके के उपदेश जरुर सुनाने चाहिये...शायद कल को पीके2 बनने तक ये सुधार जायें.....देखिए भाई लोग होप नहीं खोनी चाहिये...चूँकि वही तो ईश्वर है

कई दिनों से साथी मित्रों कि पीके पर पोस्ट पढ़ी. कुछ से काफी हद तक सहमत हूँ की धर्म और मनोरंजन मिल कर कारोबार कर रहे है तो अरविन्द जी कई बार बच्चों को जैसे गा-गा कर कविताएँ सिखाई जाती हैं उसी तरह ये फिल्में भी मनोरंजन के साथ हमारे देश के नासमझों को ज्ञान दे रही हैं....बाकियों ने अपने अनुभव बताये अच्छा लगा उन सभी का भी मत उनके अनुसार सही ही है.

Tuesday, December 9, 2014

हम दोषी है...

बात ये नहीं है की अपराधी 48 घंटे में पकड़ लिया गया.....असल बात ये है कि अपराध हो ही क्यों और अपराध कैसे रुके....'निर्भया कांड' के बाद भी हमारा कानून इतना लचर है की अभी भी पुलिस अपराधी को अपराध करने के बाद ही पकड़ पाती है.....फिर कैसे ये सत्ताधारी महिला सुरक्षा को चुनावी मुद्दा बना कर वोट बटोर लेते हैं....कहाँ हैं इनके वादे जिसको ढाल बना कर ये सत्ता हथिया लिए बैठे है ....ऐसी घटनाओं पर उनका सिर्फ भाषण होता है...2 मिनट का मौन और अफ़सोस .....सुरक्षा के नाम पर क्या यही काफी है ????

दिल्ली में हुई हालिया 'कैब घटना' के बाद मेरी माँ ने मुझे फ़ोन पर इतनी सारी नसीहतें दे डाली की सोचती हूँ ..कौनसी छोडू और कौनसी पकडूं...... डरना स्वाभाविक है पर क्या डरते रहने भर से ही अपराध ख़त्म हो जायेंगे ? मेरी माँ आगरा से मुझे यहाँ नसीहतें देतीं हैं और शायद इसी तरह हर दुसरे बड़े शहरों में हर लडकी को उसकी माँ नसीहतें देती ही होगी....जल्दी ऑफिस से लौटना, अकेली कहीं मत जाना, अपने पास कुछ हथियार रखना, फ़ोन में स्पीड डायल रखना, अपनी दोस्त को सब बता के आना-जाना....ये वो और भी बहुत कुछ ..कभी-कभी तो कह देतीं है की ...सब छोड़ो और घर वापस आ जाओ..... डरना सावधानी हो सकता है ...पर ये डर यही ख़त्म नहो हो जाता बल्कि बढ़ता है ...हर लडकी डरे की उसके साथ कभी भी...कहीं भी ....कैसे भी ... बुरा हो सकता है और इस डर को पाले रखे अपने अन्दर...जीये इस डर के साथ....

पिछले दिनों रोहतक की लडकियों ने जो किया उस पर खूब बवाल मचा...उन दोनों ने अपना बचाव किया इसलिए वो चरित्रहीन और गन्दी लडकियाँ हो गयीं.....और जो लडके बलात्कार करते है वो जवानी के जोश में गलतियाँ करते हैं.....ये गलतियाँ नाबालिक भी कर दे तो मामूली बात है....और इस बात पर कोई बवाल नहीं होता बल्कि इनके बचाव में पूरी की पूरी बिरादरी उतर आती है....

यानी ...मसला लड़का लड़की का है ....इज्ज़त का नहीं ...सुरक्षा का नहीं ...... लड़के दो थप्पड़ खा जायें अपनी गलती पर तो ...नए नियम बनाये जाते हैं लड़कियों को काबू करने के लिए लेकिन.... अगर लड़कियां नोची जायें...जलाई जायें...काट-पिट दी जायें तो उनके लिए कानून बनाने पर विचार होगा ....विचारों के लिए सत्र चलायें जायेंगे....अफ़सोस ज़ाहिर किया जायेगा....नई सरकार के आने पर वो फिर से पुराने विचारों पर पुनः विचार करेगी ....और तब तक न्याय के लिए ....किसी का परिवार सामूहिक आत्मदाह करेगा...लड़कियां पंखे पर झूलेंगी...ज़हर खायेंगी...या कोई माँ अपनी कोख में ही अपनी संतान को मार डालेगी...... लेकिन सुरक्षा .....वो नहीं मिलेगी .....कभी नहीं मिलेगी....

शर्म आती है ये सोच कर की हम इस सिस्टम का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है ....हम वोटर हैं ...हम ही असली दोषी है...

Monday, November 3, 2014

दिल्ली लाइफ-7

उत्तर-प्रदेश, बिहार के नाम पर ये दिल्ली वाले बड़ा मुंह बनाते है जैसे इनका उधार लिए बैठे है ये यू.पी, बिहार वाले....

दिल्ली की हाई लाइफ स्टाइल के बारे में बड़ी बातें सुनी थी पर यहाँ रहने लगी तो पता लगा ये तो अपने यू.पी से भी गया बीता है ....वहां लोग जो है वो शायद उनकी असल पुष्टभूमि की वजह से है पर यहाँ दिल्ली में लोगों को क्या हुआ है...... ढ़ोंग/नोटंकी/पोंगापंती/अंधविश्वास/आडंबर/प्रथा/दिखावा जो कहो कम है और ये सब खूब भरा है इन दिल्ली वासियों में.....
अभी हाल ही में स्वच्छता अभियान का रोना रोये और फिर छठ पूजा का हल्ला होने लगा....बड़ा तमाशा है.....पहले सफाई के लिए चिल्लाओं और फिर गन्दगी करो....

छठ पूजा बिहार और यू.पी में ज्यादा प्रचलित है ये सुना था पर उससे ज्यादा नोटंकी यहाँ दिल्ली में देखने को मिली....दौड़ो....भागो......आगे निकलो और कूद पड़ो गंदे पानी में....फिर घिचपिच में जय-जय करो.....और पाप धूल गये .......बिलकुल सर्फ-एक्सेल के ऐड की तरह....

न जाने तब से कितने जागरण और भंडारे हो रहे है .....टैंटों में देख-देख कर लोग बुलाये जा रहे है और बाकी दीन-हीन को दुत्कारा जा रहा है .....इसके आलावा वहीँ खूब-सा खाना फेंका भी जा रहा है....जानवर सब बिखरा रहे है.......जहाँ फुटपाथ पर जिंदगियां भूखी सोती है, बचपन आंसुओं के प्याले पीते है वहां इस तरह खाना फैंका जा रहा है और उम्मीद करते हैं इन सब तमाशों से इन्हें मोक्ष मिलेगा.....सीधे स्वर्ग जायेंगे सब.......

कितना पाखंड है.....जिन्हें खिलाना चाहिये उनके मुंह तक निवाले नहीं जाते और जिन्हें इन सब की जरुरत ही नहीं उनके लिए छप्पनभोग तैयार किये जाते हैं.

हे ढोंगियों ये बताओ किस देवी-देवता ने ये कहा की उनके लिए 36 टाइप के स्पेशल डिशेस बनाओ तब वो प्रसन्न होंगे....कोई मेनू कार्ड भी है क्या इनका....फेस्टिवल स्पेशल करके.... ओह 36 करोड़ देवता और उनके मेनू कार्ड क्या बात......क्या बात....क्या बात.....

वैसे कुछ चीजें और कुछ लोगों की सोच कभी भी.....कहीं भी नहीं बदलती फिर वो यू.पी के हो, बिहार के या परदेसी......इस तरह के लोगों ने ठेका ले रखा होता है लकीर पीटने का.....जिसे बिना जाने...माने....और विचारे बस पीटते जाते है .....फिर चाहे कोई जिये न जिये उन्हें न फिर दिखाई देता है न सुनाई.......हे दुनिया वालों ऐसा भी क्या अंधविश्वासी होना.....

आंखे खोलो....सवेरा कब का हो चूका है.....

Friday, October 17, 2014

दिल्ली लाइफ-6

वैसे तो किसी के घर में झांकना ''गन्दी बात'' है फिर भी जब अचानक नज़र चली जाये तो क्या किया जाये....

शाम बालकनी में खड़ी लोगों को सुन रही थी की तभी दाहिने तरफ खुली खिड़की पर निगाह चली गयी दृश्य कुछ यूँ था.....पति महाशय बिस्तर पर लेटे हैं और उनके सामने उनकी धर्मपत्नी जी विराजमान है जो पलंग पर पैर लटका कर बैठी है....कुछ देर बाद पति महाशय अपना पैर पत्नी जी के कंधे पर रखते है और पत्नी जी दबाने लगती है....पत्नी जी ने मोबाइल फ़ोन उठा कर शायद मैसज पढ़ा और मुस्कुरा कर पति को भी सुनाया ......फिर पैर गले पर आता है और जब पत्नी हटाती है तो एक जोर की लात उसके गले पर पड़ती है और वो नीचे जा गिरती है.....

कराहती हुई पत्नी उठती है और गुस्सा जताती है तभी पति उठता है और उसका गला पकड़ कहता है ...तू इसी लायक है कमीनी ....चल पैर दबा ..... पत्नी रोती हुई फिर से पति के पैर दबाने लगती है ....

ये घटना मुझे विचलित कर रही है .....क्यूंकि ये व्यवहार अधिकार नही है ....वो महिला प्रेम से अपने पति का पांव दबा रही थी और अचानक ही उसका प्रेम उसपर हावी हो गया .....उसके बाद भी उसने उसी प्रेम के चलते चुप्पी साधी और फिर पैर दबाने लगी ....अब इसमें अच्छा क्या है ? उसके मन का क्या है ? उसका धर्म क्या है ? और उस रिश्ते में उसकी जगह क्या है ?

क्या ये करवाचौथ के बाद का ईनाम है ?.....या उसकी क़िस्त जो अभी-तभी-कभी भी मिलती है और मिलती रहती है....... मेरी पिछली कडवी करवाचौथ वाली पोस्ट पर कईयों के इमोशनल कमेंट मिले ....अच्छा है भाई ....आपकी इच्छा है ख़ुशी से व्रत करो पर ये आपकी बात है ''सबकी नहीं''...
एक मित्र ने कमेंट किया की महिलायें भी इस लायक है की उनको ''सबक सिखाया जाये'' ......यानी वो ये मानते है की महिलाएं ''मारी-पिटी जानी चाहिये''.....क्यूंकि वो काम ही ऐसा करती हैं.....ताज्जुब ये की महाशय पत्रकार हैं और ऐसी प्रगतिशील सोच रखते हैं...

पिछले दिनों लव-जेहाद को लेके जो ड्रामा देखने और पढने को मिला उसमें भी लडकियों को ही दोषी बताया गया और उनके लिए ''नये नियम-कानून'' दिए गये.....ये हाल लव मैरिज का भी है और अरेंज्ड मैरिज का भी...... फिर उसमे लड़की/महिला को दोषी क्यूँ बताया जाता है.....

''लड़की डोली में ससुराल जाती है और अर्थी में ही ससुराल से निकलती है'' ये कौनसे विचार हैं ? ''तू अब इस घर की नहीं रही जैसे भी रह पर तुझे अपने घर(ससुराल) में ही रहना है'' ये लाइन अभी भी सुनने को मिलती है और पढ़ी-लिखी हाई प्रोफाइल के लोगो में भी ..... बात वही है .....लिख-पढ़ के कितनी भी किताबें फाड़ डालो पर सोच मत बदलो न बदलने दो.... लकीर के फकीर बने रहो और उसी को घिसते रहो पीढ़ी-दर-पीढ़ी ......
तब तो रहने दो हो गया परिवर्तन...जितना लिखते-पढ़ते हो बेकार है ये सब छोड़ खेत जोतो....

कैसे परिवर्तन होगा ? कब होगा ? क्या परिवर्तन करने के लिए आसमां से कोई दूत उतरेगा या कोई दिव्य आत्मा प्रकट होगी या फिर कोई भगवान जन्म लेंगे ??

कौन जवाब देगा इसका ....???? कौन ???

*लव-जेहाद नामक नोटंकी अब सबके सामने है.... अब कहाँ है वो लोग जो इसके लिए लड़-मर रहे थे.....गड्डे में दबे हो या तड़ीपार हो लिये ....

Friday, October 10, 2014

दिल्ली लाइफ-5

पुलिस ..... कहीं की भी हो ...सही हो और अपनी ज़िम्मेदारी समझ के काम करे ऐसा...साधारणता देखने को नहीं मिलता... हाँ ...वो गैर-ज़िम्मेदार, क्रूरतापूर्ण और बददिमागी का काम करती हैं ये तो सामान्य बात है....

वैसे तो ये समाज के हित के लिए हैं और यही इनका परम-धर्म भी है परन्तु ...आज के परिदृश्य को देखते हुए सबसे पहले तो पुलिस ही अपने हाथ खड़े कर देती हैं कि ''भईया जो करो ...मरो...काटो ..खुद ही भुगतो...हम तक बात तब आये जब ..खुनम-खून हो जाये ...एक आध का सर फूट जाये...लालू-लाली भाग जाये....हाय-तौबा मच जाये... और खूब-पैसा हो तब हम तक आओ वर्ना मामला खुद ही सुलटाओ....

कुछ मामले ऐसे है जिनमें पुलिस की जबरन धोंस है जैसे अभी मेट्रो में हुए एक वाकये को बताती हूँ.....महिला डब्बे में कड़ी निगरानी रखी जाती है की कोई पुरुष उसमें न रहे....न ही उसके अंतिम छोर पर जहाँ से पुरुष डिब्बा शुरू होता है वहां पर भी निगरानी के लिए बीच-बीच में महिला-पुलिस आती रहती है.....

यात्रा के बीच ही निगरानी के लिए महिला कांस्टेबल के साथ उनके पुरुष कांस्टेबल भी साथ आये.....जैसे ही उन्होंने देखा की महिला डब्बे के अंतिम छोर पर लड़के टिक कर खड़े हैं तो ये सभी एक स्वर में चिल्लाने लगे....''उठो यहाँ से...दिखता नहीं है महिलाओं का डिब्बा है ये...उठो जल्दी...पीछे खिसको...उठो...उठो ...सुन लिया करो एक बार में .....अरे सुनाई नहीं दिया क्या ....उठ बे ''......
इतने में वो लड़के सकपका गये और एक उठते में ही लडखडा गया और गिर के फिर बैठ गया और बस यहीं उसकी शामत आ गयी....तुरंत महिला कांस्टेबल चिल्लाई...''निकल यहाँ से...एक बार में सुनता नहीं है...निकल''.... और पुरुष कांस्टेबल आया और हाथापाई करने लगा ....''निकल...निकल यहाँ से ...साले सुनते नहीं हो एक बार में ...तुम लोगो का ज्यादा दिमाग ख़राब हुआ है ....निकलो यहाँ से''..... और लडके को घसीट के बहार कर दिया गया ...... और बाद में उस लडके को बहुत सुनाया गया और शायद तमाचे भी लगाये गये....

पुलिस का ये व्यवहार सही था लेकिन उस लड़के के लिए नहीं .....इसमें उस लड़के की कोई गलती नहीं थी...उसने एक शब्द भी नहीं कहा और न ही उसने कुछ जानबूझ कर किया और उस पर .....पुलिस का ये रवैया ..... मेरी तरह कई बस देखते ही रह गये ......ये क्या था कोई समझ ही नहीं पाया .......

आये दिन आने वाली ख़बरों में पुलिस का बर्बर रवैया हैरान नहीं करता लेकिन परेशां बहुत करता हैं ख़ास कर महिलाओं के प्रति उनका व्यवहार बेहद कठोर है.....लेकिन ये जो घटना हुई उसके बाद ये बात सामने आती है की पुलिस कमज़ोर और सीधे लोगो को ज्यादा तंग करती है..... ''यहाँ पुलिस की धोंस और उसकी frustration उनके व्यवहार में थी साथ में ये भी दिख रहा था की वो ताकतवर है और किसी को भी दो-चार लगा सकते है''......

इस घटना के आलावा अभी राजीव चौक पर जो लड़कों की मार-पिटाई हुई उसमें पुलिस कहीं नज़र नहीं आई ...नज़र आई पर मूक दर्शक बन तमाशा देखती हुई .... ये भी पुलिस है जो दब्बू बन दूर से सब देखती रही क्यूंकि ये जानते थे बीच में पड़े तो खुद ही दो-तीन खा लेंगे इसलिए दूर रहे और बाद में फिल्मी पुलिस की तरह एन्र्टी ली....

*कभी पद और कभी कद ...दिमाग ख़राब कर देते है...

Thursday, October 2, 2014

दिल्ली लाइफ-4

सुबह से यहाँ नोटंकी चालू है ....

नवरात्रे का आठवां दिन यानी अष्ठमी और घरों में ''कन्या पूजन'' जारी था साथ ही घरों के बाहर बस्तियों के बच्चे शोर कर रहे थे ....घरों की महिलाएं भोग लगा कर बच्चियों को डांटती-डपटती ''प्रसाद'' देती रहीं....और पूजा सम्पन्न हुई .....

शास्त्री जी को कोई याद नहीं करता....करते है तो सिर्फ गांधी जी (दुखी मन से ''जी'' लगाना पड़ रहा है) को और खूब रोते है .....लेकिन अब नया ''रुदन'' आज से लागू हो गया है.... जिसके लिए सारे मोदियायें लोग रोया करेंगे.....और दूसरों को रुलाया भी करेंगे....

कितने ही नेताओं ने दिन भर ''साफ़-सुधरी'' जगह पर दना-दन झाड़ू मारी और फोटो भी खिचवाई....धक्का-मुक्की कर के कैमरे के सामने आते रहे और ''हम मोदियायें हुए हैं, ये हमारा धर्म हैं, हम सब एक हैं, और हम भी विदेशी नक़ल पर ''आइस बकेट चैलेंज की तरह'' अपने विरोधियों को अपना भाई मान कर उनको इस ''जबरदस्ती की सफाई'' के लिए आमंत्रित करते हैं.....कहते रहे''.

इन सब के आलावा बहुत बड़ी संख्या में वो लोग भी थे जो ''असल में रोये'' जिनके लिए ये दिन छुट्टी का दिन हुआ करता था ....एक अदद मूवी का दिन हुआ करता था....बीवी के साथ फुर्सत भरा दिन और बच्चों के साथ मस्त पिकनिक का दिन हुआ करता था.....कितने ही बेचारे काम के बोझ के मारे सुबह होते ही रोने लगे और ढलती शाम तक रोते ही रहे ...हाय बड़ा दुःख दिना....

जितने भी लोग ''मोदीया'' गए हैं ....वो सभी दारू पी के टन्न पड़े है अब ...दिन भर एक दुसरे के ''झाड़ू सेल्फी'' को शाम में एन्जॉय कर रहे हैं और अब घर में ''कचरा' 'फैला रहे हैं....खबर है आज शाम से सारा कचरा इकठ्ठा किया जायेगा और अलगे साल फोटो के साथ साफ़ किया जायेगा .....अरे भाई ....कुछ काम करो तो उसकी तारीफ भी लो ....हैं की नहीं ......‪#‎मोदियापा_हाय_हाय‬

दिल्ली लाइफ-3

दिल्ली की मेट्रो और उसके जलवे..... या यूँ कहूँ की मेट्रों को जलवे दिए हैं दिल्ली के लोगों ने ....ख़ास कर यहाँ की लड़कियों ने .....पर ये जलवे जितने आकर्षक हैं उतने ही अचंभित करने वाले भी....

महिलाओं के लिए ख़ास आरक्षित डिब्बे में भी कई बार मर्दों होना ऐसा महसूस कराता है जैसे ''हमारी थाली में कोई और खाना खा रहा हो'' .....

मेरा अनुभव भी ऐसा रहा कई बार ....जिसके चलते मैंने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मर्दों को ये एहसास भी कराया की ''तुम निकलो यहाँ से'' .....पर कुत्ते की जात....(वफ़ादारी के लिए नहीं टेड़ी पूंछ के लिए).... कितना भी सिखा लो...पढ़ा लो ..... रहते ढेर ही हैं....

गुस्सा तब आता है जब इन टेड़ी पूंछ वालों की नज़रे खड़े-खड़े लड़कियों के शरीर को नाप लेती हैं....न जाने दिमाग में क्या-क्या चल रहा होता हैं....आंखे अलग निकल के बाहर आ जाती हैं ....बस नहीं चलता वरना अपनी आंखे निकाल कर लड़कियों के बदन पर लगा दें......ऐसी स्क्रीनिंग करते है कि क्या कहें ......इनके हाथों के इशारे और बदन की उठक-बैठक इनकी बैचनी को साफ़ दर्शाती है.....

शाम अपना काम निपटा कर जब वापस अपने ठिकाने को चली तब मेट्रों में महिलाओं के डिब्बे की भीड़ देख वापस हो ली .....मुड़ कर जनरल डिब्बे में आ गयी .....

भीड़ थी पर ऐसा भी नहीं था की कोई चिपकने लगे ....लडकों से डिब्बा भरा हुआ था सभी ऑफिस से ठिकाने को लौट रहे थे ....इसी बीच एक लंपट ने एक टाइम पूछा....

उसकी तरफ देख गुस्सा आया और मन में गलियां भी .....वाहियात इन्सान हाथ में मोबाइल हैं और टाइम मुझसे पूछ रहा है तेरा मोबाइल फूटा हैं क्या ?.... इत्ता बढ़ियाँ मोबाइल लिए हो और जब टाइम नहीं दिखाता तो फैंक परे.....

गुस्सा रोक कर मैंने टाइम बता दिया.....तब तो जैसे उसकी हिम्मत बढ़ गयी ....लगा घूरने ....ऊपर से नीचे ....टकटकी लगाये रहा ....खूब नाप लिया होगा लीचड़ ने ....मन में घटिया से घटिया ख्याल बुन लिए होंगे और उसकी शक्ल देख के लग रहा था की वो ....असल में कुत्ता ही है .....

पहले तो सोचा की क्यूँ अपना मूड ख़राब करूं फिर सोचा ख़राब तो हो ही गया है अब इसे ठीक कर लेती हूँ .......

अपनी सारी तमीज़ को बैग में डाला और उसको बोला '' टाइम पूछ रहा था या पता लगा रहा था की तेरा बुरा समय शुरू हुआ या नहीं ''.....

वो चौंक कर बोला- क्या मतलब ??

मैंने सीधे से बोल दिया '' इतनी देर से जो तेरे दिमाग में कीड़े चल रहे है न वो तेरी आँखों से हो कर बाहर मुझे दिखने लगे हैं ....तमीज़ तो हैं नहीं तुझमे.....वाहियात इन्सान''......

ये सुनते ही उसका मुंह इतना लम्बा लटक गया नीचे की ओर जैसे बिछ ही जायेगा फर्श पर और बाकी ये वार्तालाप सुन ....कुछ गुड-गुड करते रहे और कुछ हंसने लगे ....... पर कोई बीच में बोला नहीं .....

नामर्द कहीं के ....


*औरतें अगर आदमियों का दिमाग पढने लगे न ...तो रोज़ उन्हें एक थप्पड़ मिले..

(लोगो को समझने में दिक्कत हो रही हैं इसलिए बता दूँ ....सभी मर्द/पुरुष एक जैसे नहीं होते...यहाँ कुछ खास किस्म के मर्दों/पुरुषों के बारे में बात की हैं...)

http://www.thepatrika.com/NewsPortal/h?cID=gDOR8Wti4OU%3D

Friday, September 26, 2014

दिल्ली लाइफ-2

मेरे कमरे की बालकनी में सुबह-सुबह कबूतरों का अच्छा-खासा मज़ुमा लगता है....उनकी गुटर-गु...गुटर-गु ....बड़ी अच्छी लगती है जैसे अलार्म हो ये ....मधुर अलार्म

बालकनी के सामने ही पंजाबी परिवार की बालकनी यानी उनका घर हैं ....सुबह के 8 बजे और लता जी की मीठी आवाज़ '' बड़ा नटखट है ये कृष्णा कन्हियाँ...का करे यशोदा मैया ....गीत बन कानो में पड़ी ....ये मेरा पसंदीदा गीत है जो मुझे मुंह जबानी याद भी हैं .... दिल खुश हो गया सुन कर ...पर उसी बीच ...कर्कश आवाज़ आई ...''ओ मरजानी ...आलू उबले है वही बना ले.... सवेरे सवेरे मुंडे दा दिमाग खांदी है''....

मैं तो ठिठक गयी जैसे ....इतने मधुर स्वरों के बीच ये कौवें जैसी आवाज़ उफ्फ्फ ...... कुछ समय बाद .....फिर मधुर स्वर बहने लगे ....''जय अम्बे गौरी ...मैया जय श्यामा गौरी ''....अनुराधा पोडवाल जी की शीलत ध्वनि ....आहा ....सारा वातावरण महकने लगा.....

कुछ समय तक घंटियाँ बजती रहीं और भजन चलते रहे ....माहौल सुगंधित और पवित्र हो गया था ....तभी फिर वही कौवा बोला ..... ''तेरी जैसी ढीठ नी देखिया मैं ....रोज़-रोज़ तेनू सिखावंगी मैं ...हट परे ...मैं खुद ही कर लंगी''....

मेरा मन फिर ख़राब हो गया ......मैंने अपनी दोस्त से इस परिवार के बारे में पूछा ....पता लगा ...ये कौवा सास है और अपनी नवेली बहूँ से ऐसे बात करती है .... वजह शायद ये की उनकी इच्छा से लडके ने शादी नहीं की थी उसकी ''लव-मैरिज'' थी .....

अजीब है न लोग ....दोहरे मन के .....ईश्वर का नाम जपते हैं और उसके बनाये इन्सान से नफरत करते है .....ईश्वर कुछ मांगता नहीं फिर भी उसके लिए सारे आडम्बर किये जाते है और जो हर चीज़ के लायक है उसको गलियां दी जाती हैं ..... नवरात्रे शुरू हो गये ये मुझे अभी सुबह ही पता लगा ....और ये भी की ....देवी(स्त्री) किस-किस तरह से पूजी जाती हैं.....

*शहर कोई भी हो ....विभिन्नतायें हो सकती हैं पर ......पाखंडियों से दुनिया भरी पड़ी हैं .....

Wednesday, September 24, 2014

दिल्ली लाइफ- 1

दिल्ली के बारे में लोगो की आम राय यही है की यहाँ के लोग ''एक दुसरे से कोई मतलब नहीं रखते...अपने स्वार्थ के लिए सारे हथकंडे अपना लेते है यानी ...बेहद स्वार्थी और मतलब परस्त लोग है'' .....

मैं इस राय को नकारती हूँ ....मैं दिल्ली में जहाँ पहले रहा करती थी वो मेरे रिश्तेदार थे और एक्सीडेंट के बाद जब में घर गयी तो गुज़रते वक़्त के साथ वो रिश्तेदार और उनकी सोच भी बदल गयी .....दुःख हुआ मुझे बहुत पर ....अच्छा ही हुआ वक़्त रहते सच्चाई सामने आ गयी....

फिर वापस दिल्ली आई और रहने के लिए जगह तलाशती उससे पहले ही मेरी कुछ माह पूर्व बनी सखी ने बड़े ही स्नेह से मुझे अपने घर में रहने को कहा .....''मैं बता दूँ...मेरी सखी पूरी तरह से दिल्ली की हैं और इसी मतलबी परिवेश कि हैं ....लेकिन इनके स्वभाव में दूर-दूर तक इस दोहेरे परिवेश का कोई नामो-निशां नहीं है'' ..... मुझसे उम्र में बड़ी होने के बाद भी इनके व्यक्तित्व का सादापन और इनकी सरलता इन्हें सबसे ख़ास बनाती है.....मुझे इस बात की बेहद ख़ुशी है की जब मेरे अपनों ने मेरे साथ सौतेला व्यवहार किया तब मेरे साधारण से परिचय के बाद भी ''मेरी सखी'' ने मुझे वैसे समझा और अपनाया जैसी मैं हूँ...

उनके परिवार ने भी मुझे मेरे नाम से नहीं बल्कि ''नये रिश्तों'' से जोड़ा और सम्बोधित किया....मैं मानती हूँ की हमारे अनुभव हमें किसी के प्रति राय बनाने पर मजबूर करते है परन्तु उस अनुभव को हर एक इन्सान पर आज़माना और राय बनाना गलत है ..... अगर सभी मतलबी और स्वार्थी है तो....अच्छे लोग कहाँ है और कौन हैं?

दिल्ली में दिल वाले हो न हो ...पर दिल्ली में दिल-वालियाँ जरुर हैं .....

Wednesday, September 17, 2014

सिंगल मदर...

सिंगल मदर होना मजाक नहीं हैं ..... एक मर्द इस ज़िम्मेदारी को कभी नहीं निभा सकता...मेरे ज़ेहन में ऐसा कोई उदाहरण भी नहीं है जो सिंगल फादर को इस पक्ष में सामने रख सके....

चलिए मान भी लें ऐसा कोई उदाहरण होगा या है भी तो उसकी परिस्थतियाँ ''सिंगल मदर'' से कम पेचीदा और साधारण ही होंगी.....

मान ले यदि कोई ऐसा ''एकल पिता'' है भी तो ...कम से कम उसे ''उपयोगी सामान'' की तरह तो देखा नहीं जाता होगा न ही उसके आस-पास ऐसी महिलाओं का हज़ुमा लगा रहता होगा जो हर पल यही सोचती होंगीं की कभी तो ये ''पट जाए''....कभी तो घर ''एक कॉफ़ी'' के लिए बुला ले..... या उसके नकारात्मक व्यवहार पर ये कहती फिरतीं हों की ''ये तो है ही चरित्रहीन तभी तो अकेला है''......इन सबके आलावा उसके द्वारा की गयी सहायता का गलत अर्थ और उसको ''चांस मारने'' का उलाहना
दिया जाता होगा .....और सबसे ख़ास बात ये की उसके दोस्तों में उतना ही ''इंटरेस्ट'' दिखाया जाता होगा जितना की उसके बच्चों में .....क्या ऐसा होता है ?? क्या किसी एकल पिता के साथ ये मुमकिन है ?? क्या उसका सामाजिक होना और लोगो की सहायता करना उसको ''चरित्रहीन'' होने का करार देता है ???

यदि नहीं तो .........क्यूँ....और किस लिए .....एक सिंगल मदर इन सभी परिस्थतियों का सामना करती है....क्यूँ उसे समाज का हर दूसरा मर्द '' उपयोगी सामान'' समझता है..... क्यूँ उसकी सहायता उसके अच्छे व्यवहार को ''चरित्रहीनता'' माना जाता है....क्यूँ वो सिर्फ ''पट जाने के लिए'' सोची-विचारी जातीं हैं.....क्यूँ उसके घर आने का हक़ हर मर्द के मन में उछालें मारता हैं ......क्यूँ उसके बच्चे उन सभी मर्दों के हो जाते है जो उससे साधारण सा भी वार्तालापी रिश्ता रखते हैं.....और क्यूँ वो ''ना'' करने पर वो बद्चलन हो जाती है.....क्यूँ ???

क्यूंकि वो एक मजबूत इरादों वाली माँ है....क्यूंकि वो अपनी जिम्मेदारियां किसी मर्द से बेहतर निभाती हैं....क्यूंकि वो अपनी सामाजिक और व्यक्तिगत ज़िन्दगी को पूर्ण रूप से जीती हैं....क्यूंकि वो पुरुषवादी सोच के मुंह पर जोर का तमाचा है.....क्यूंकि वो किसी की तकलीफ को आसानी से समझ कर उसकी सहायता करती है....या सिर्फ इसलिए क्यूंकि वो एक ''सिंगल मदर'' हैं और इसलिए सारे मर्दों की उस पर नज़र है....

Monday, September 1, 2014

लव-अत्याचार

कॉलेज के दिनों में बिसनेस कम्युनिकेशन के नाम से एक विषय पढ़ाया जाता था जिसमें संवादहीनता यानी ''मिस कम्युनिकेशन'' के बारे में पढ़ाया जाता था. आप सभी ने भी सुना होगा की किस तरह से एक छोटी सी बात का सही संवाद न होने की वजह से मुख्य बात के अर्थ का अनर्थ हो जाता है इसी का ताज़ा उदाहरण हमारे सामने है ‘’लव-जेहाद’’ के रूप में है.

लव-जेहाद सच में एक आधी-अधूरी चर्चा है जिसे जितने मुंह मिलते गए उसमें उतने ही मसाले मिलते गये और कब बात का बतंगड़ बन गया पता ही नहीं लगा पर अब इस बहस ने राजनीतिक रूप धर लिया है या ये कहे की अब ये कठमुल्लों के हाथ का झुनझुना बन गया है.

सबसे पहले शायद केरल से यह शब्द चला, और फिर जांच से पता चला कि यह शब्द जितना हवा में है, उतना हकीकत में नहीं. केरल सरकार ने बाकायदा अदालत में कहा कि उसे इस ''लव जेहाद'' का एक भी मामला नहीं मिला. पर इस बात ने जोर तब पकड़ा जब अचानक उत्तर प्रदेश से लेकर झारखंड तक में यह शब्द नई गूंज लेकर फिजाओं में रोष भरने लगा. यह शुरुआत तब हुई जब मेरठ की एक लड़की ने आरोप लगाया कि उसे अगवा करके मदरसों में रखा गया, उसके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ, उसका ऑपरेशन कराया गया, उसे धर्म परिवर्तन करने के लिए विवश किया गया और फिर उसे सऊदी अरब भेजने की तैयारी की जा रही थी.

माहौल में अचानक सांप्रदायिक तनाव पैदा कर सकने वाली ताकत से लैस इन आरोपों की पोल पट्टी जब धीरे-धीरे खुलने लगी और दिखने लगा कि यह मामला दरअसल एक प्रेम प्रसंग का है जिसे छुपाने के लिए इतने सारे झूठ बोले गए, तब इस मामले को मौके पर चौके की तरह राजनीतिक संगठनों ने और कुछ मज़हबी ठेकेदारों ने लव-जेहाद का नाम दे दिया. उनके मुताबिक इस लव जेहाद में मुस्लिम लड़के हिंदू लड़कियों को फुसलाते हैं और फिर शादी करके उनका धर्म परिवर्तन कराते हैं.

इस सांप्रदायिक आग को घी का तड़का तब मिला जब रांची की एक राष्ट्रीय निशानेबाज लड़की तारा शाहदेव का मामला सामने आया. तारा ने बताया कि रकीबुल हसन नाम के एक शख्स ने उसे झांसा देते हुए अपना नाम रंजीत सिंह कोहली बताया और फिर उससे शादी कर ली. यह बात बाद में खुली कि वह मुस्लिम है और उसके बाद उसने धर्म परिवर्तन का दबाव बनाना शुरू किया- तारा के साथ बुरी तरह मारपीट भी की. अब इस मामले की जांच पुलिस कर रही है.

इस बात से नहीं पलटा जा सकता कि कई बार प्रेम-विवाह में इस तरह का धोखा हो जाता है जबकि ऐसे धोखे व्यवस्था-विवाह में ज्यादा देखने को मिल जाते है लेकिन इस मुद्दे को किसी लडकी से हुए छल, उसके शारीरिक और यौन उत्पीड़न को न देखेते हुए इस बात पर तवज्जों ज्यादा दी जाती रही कि यह एक लव-जेहाद का मामला है जो मुस्लिमों की हिन्दुओं के खिलाफ़ एक साजिश का हिस्सा है.

इस बात में दोराय नहीं कि रकीबुल हसन को वाकई सजा मिलनी चाहिए. लेकिन इंसाफ के इस ज़रूरी तकाज़े को भाजपा और संघ परिवार ने अपनी राजनीतिक मुहिम बना डाला और जोर-जबरदस्ती कर रांची बंद करवाई. यह मामला उनके लिए लव जेहाद का ऐसा ज्वलंत उदाहरण बना जिसके आधार पर बड़ी आसानी से लोगों की भावनाएं भड़काई जा सकती हैं और नयी सरकार आने के बाद देश में होने वाले चुनावों के लिए वोटों के धुरुविकरण की कोशिशों को अंजाम दिया जा सकता है.

देखा जाए तो लव-जेहाद जैसा कुछ भी नहीं है यह शिगूफा मात्र है जो महिलाओं की आज़ादी, उनकी बढती सामाजिक पहल के खिलाफ़ और उनके अधिकारों के विरुद्ध फैलाया गया है. असल में ये उन कुछ घटिया और तुच्छ सोच वाले सामाजिक ठेकेदारों का काम है जो यह नहीं चाहते कि महिलाये अपनी इच्छा से विवाह करें या उन्हें ‘’चुनने का अधिकार’’ हो. समाज में महिलाओं की बढ़ती साझेदारी को हज़म कर पाना और उन्हें बराबरी का दर्जा दे पाना इस पुरुषवादी सोच को बर्दाश्त नहीं हो रहा है और उसी के चलते ये लव-जेहाद इन के लिए एक सुनहरा मौका बन के आया है.

देखा जाये तो ये लड़कियों/महिलाओं पर अघोषित तानाशाही लादने जैसा है कि उन्हें शादी कहाँ नहीं करनी है, किससे नहीं करनी है यह चुनने का अधिकार वो नहीं रखती न ही उनके माता-पिता. यह तय करेंगे राजनीतिक दलों के लोग या कोई सेना. आखिर ये हक़ इनको किसने दिया? लव-जेहाद का नाम देकर ये तानाशाही चाहते है की लड़कियां/महिलाएं वापस चार-दीवारों में कैद हो जाएँ और बिना मर्द का मुंह देखे उसके बच्चे जने, उन्हें पाले और मर जाएँ.

राजनीतिक दलों की ऐसी भूमिका क्या महिलाओं के लिए नई खाप पंचायत बना कर धर्म के नाम पर नए सिरे से उनकी ऑनर किलिंग नहीं है? आज के इस नए प्रगतिशील और टेक्नोलॉजी के युग में जहाँ चाँद पर दुनिया बसाने की बात की जाती है वहां लड़के-लड़कियों के मिलने जुलने पर रोक लगाना कहाँ तक सही है ? और इन्ही सब के चलते कभी मोबाइल फ़ोन के इस्तेमाल पर रोक लगायी जाती है तो कभी उन पर जींस न पहनने के लिए फरमान ज़ारी किया जाते है. क्या प्यार के नाम पर इस तरह का राजनीतिक खेल खेलना, उसे साम्प्रदायिक रंग देना और धर्म के आधार पर दो सम्प्रदायों में ज़हर भर देना सही है ?

लव-जेहाद के पनपने से सबसे ज्यादा भय किसे है ? अल्पसंख्यकों को ? ज़ाहिर है क्यूंकि इसका सबसे बुरा प्रभाव इन्ही के ऊपर पड़ेगा. एक तरफ जहाँ बलात्कारों के आकड़ों में अल्पसंख्यक महिलाओं/लड़कियों की संख्या अधिक है वहीँ अब लव-जेहाद के बाद बलात्कारों के कारणों को इससे जोड़ा जायेगा और जितनी थोड़ी बहुत अल्पसंख्यकों की स्थति में सुधार आया है वो फिर से अपनी पूर्व स्थति में पहुँच जायेगा.

देखा जाये तो इस मानसिकता के असली शिकार वे लड़के-लड़कियां होंगे जो अपनी जाति, अपने धर्म भूल कर एक-दूसरे से प्रेम और शादी करने की जुर्रत करते रहे हैं और इसके लिए कई तरह की सज़ाएं पहले से झेलते रहे हैं. इसके आलावा वो लड़कियां जो घर से दूर पढने जाती है और नौकरी कर रही है अब उनके लिए घर से निकलना मुश्किल हो जायेगा, उनके पीछे जासूसों की तरह उनके भाईयों और रिश्तेदारों को लगाया जायेगा क्यूंकि जिस तरह से ये धर्म के ठेकेदार लव-जेहाद से बचने के लिए उपाय सुझा रहे है की ‘’अपनी बहनों और बेटियों को संभालिए उन पर नज़र रखिये, उन्हें मुस्लिम लडकों से बचाओ’’. उनके चलते अब लडकियों को चार-दीवारी में बंद कर रखा जायेगा और उनके मन के उडान भरने से पहले ही उनको शादी के पिंजरे में कैद कर दिया जायेगा. यानी ये समझ लिया जाए कि इतने सालों तक जो महिला उत्थान के लिए कदम उठाये गये, लड़कियों को जागरूक करने और उन्हें अपने पैरों पर खड़े होने की जो कवायते चलायी गयी वो सभी मिट्टी का ढेर साबित हो जाएँगी और पैरों की जूती कही जाने वाली नारी फिर से वही बन के रह जाएगी.

इस समय समाज में दो तरह की अतिवादी धाराएँ दिख रही है जिसमें से एक लिव-इन को सही मानती है जो एकल मार्तत्व, साथी चुनना, मनचाहा पहनना और मनचाहा रहना अपना हक़ समझती हैं तो दूसरी तरफ ऐसी बिरादरी फिर बलवती हो रही है जो लड़कियों/महिलाओं को वापस दसवीं सदी में ले जाना चाहती है. किसी को भी दूसरी बिरादरी के ख़यालात कभी पसंद नहीं आयेंगे भले ही पहली बिरादरी में कुछ बुराइयाँ क्यूँ न हों.

अब जब लड़के-लड़कियां लिव-इन को अपना मनचाहा मानते है वही लव-जेहाद इस रिश्ते पर सवालियाँ निशान जैसा बन खड़ा हुआ है. लड़के-लड़कियों पर नज़र रखी जाएगी, उनके साथ होने, खाने-पीने, उनके साथ काम करने तक को शक की निगाह से देखा जायेगा. ऐसे जोड़ो को तलाशा जायेगा जो साथ रहेने को फिराक में होंगे और उन्हें पकड़ कर लव-जेहादी होने का कसूरवार ठहराया जायेगा.

लव-ज़ेहाद के नाम पर उलटी पट्टी पढाई जा रही है जबरदस्ती का मतलब निकला जा रहा है. लोगो को ढूंढा जा रहा है कि वो अलग-अलग धर्म के निकले और उन पर कहानी बनाई जाये. कुछ केस ऐसे हो सकते है पर जिस तरह से इस बात को मुद्दा बनाया जा रहा है वो राजनीतिक साजिश है उससे ज्यादा और कुछ नहीं.

फेसबुक जैसे सोशल साइट्स पर लव-जेहाद का खासा प्रचार किया जा रहा है जिसमें मुख्य संगठन शामिल है और भांति-भांति से लव-जेहाद के बारे में मनगड़ंत शिगूफे छोड़े जा रहे है मसलन फेसबुक पर लव-जेहाद के बारे में कोमवादी सोच ये कहती है की ‘’ लव-जेहाद हिन्दुओं का खात्मा करने की साजिश है और मुसलमानों ने अपनी क़ोम को बढ़ाने के लिए ये चाल चली है जिसके लिए उनको बाकायदा प्रशिक्षण दिया जाता है और फिर लड़कियों के पीछे लगाया जाता है जो जितनी ज्यादा लड़कियां लायेगा उसको उतनी बड़ी रकम दी जाती है’’.

उसके बाद इस व्याख्यान के रचियता ने पूरा हिसाब भी लगा कर दिया की यदि हिन्दू लडकी किसी मुस्लिम लडके के बच्चों की माँ बनेगी तो उसके द्वारा कितने हिन्दुओं का नुकसान होगा.

‘’एक हिंदू लड़की के मुसलमान बनने से कम से कम 8 हिन्दुओ की हानि होती हैं जो लड़की मुसलमान बनती हैं वह एक ,जिसके साथ भागती हैं उसके लिए कम से कम 4 बच्चे पैदा करती हैं, अगर वह लड़की ना भागती और किसी हिंदू के साथ शादी करती और वह समझदार होता तो कम से कम 3 बच्चे पैदा करता इस प्रकार 1+4+3=8 हिन्दुओ का नुकसान होता हैं .....जरा अनुमान लगाइए के 8 हिंदू अगले पच्चीस साल में 3 बच्चे भी पैदा करते तो 24 और वो अगले पच्चीस साल में 72 इस प्रकार सौ साल में 432 हिन्दुओ का नुकसान होता है सिर्फ एक हिंदू लड़की के जाने से’’......

अब अंदाज़ा लगायें की किस प्रकार से इस बे-सर-पैर के मुद्दे को एक ज़हीन मुद्दा बनाया जा रहा है. मैं अपने कई मुस्लिम मित्रों से इस बारे में बातचीत कर चुकी हूँ और उनका भी यही कहना है कि ये सभी बातें, सभी इल्जामत पूरी तरह से निर्थक और भ्रामक है. इस मसले का असल मुद्दा साम्प्रदायिक हलचलों को बढ़ावा देना है और महिलाओं को उनके हक़ से महरूम करना है. इसके अलावा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के शिक्षकों का कहना है कि इस्लाम में 'लव जेहाद' जैसी कोई अवधारणा नहीं है और ये शब्द गलत तरीके से गढ़ा गया है।

दो लोग प्यार करे और साथ रहे इसमें न कोई धर्म आड़े आता है न कोई जाति, हाँ वो बात अलग है कि किजब न निभे तो प्यार को धोखा बता कर उसको सड़क पर ला कर उसकी छिछलेदारी की जाती है और इसी से कुछ लोगों को मौका मिला जाता है ‘’बहती गंगा में हाथ धोने का’’. पर इसका मतलब ये नहीं कि इससे हर कोई गैर-धर्मी विवाह किसी विरोध का मुद्दा बनना चाहिये.

कितने ही लोगों के सुखी गृहस्थ जीवन का उदाहरण हमारे सामने है जिनमें लोगों के चाहेते फिल्मी सितारों से ले कर उनके पसंदीदा खिलाड़ी और राजनेता शामिल है जिन्होंने न केवल दुसरे धर्म में शादियाँ की बल्कि आपसी परिवारों में भी सोहाद्र बनाये रखा. देश की कितनी ही नामचीन हस्तियाँ अपने दुसरे धर्म के साथी के साथ एक बेहतर और सफल जीवन बिता रहे है और दूसरों के लिए एक अच्छा उदाहरण भी है.

देश भर में लाखों-करोड़ों लड़के-लड़कियां साथ पढ़ रहे है, नौकरियां कर रहे है और धीरे-धीरे ही सही पर अपने जीवन के फैसले करना सीख रहे हैं. ज़ाहिर है कि उनके बीच भी कई तरह की विभिन्नतायें मौजूद हैं, ऊंच-नीच के फर्क भी हैं और अलग-अलग वर्गों का फासला भी है, लेकिन इन सबके बीच एक बात इन सब में सामान है-‘’अगर उन्हें कोई चीज बदल और जोड़ रही है तो वे प्रोफेसर्स के पढ़ायें गये पाठ नहीं है, न परिवार से मिलने वाले संस्कार या उनके नियम-कानून है और न ही किसी किताब का ज्ञान.. बल्कि वह प्रेम है जो उन्हें ये समझा रहा है कि सभी बराबर हैं और एक जैसे हैं. जिनका धर्म और जाति सिर्फ प्रेम है और इसी प्रेम से सभी का जीता जा सकता है.

क्यूँ न इस तरह से ही सोचे सभी और इस लव-जेहाद को उसका असल मतलब दें. आज देश को वाकई में एक लव-जेहाद की जरुरत है जो प्रेम सिखाये, प्रेम बतायें और प्रेम ही जिये.

इसलिए ज़रुरत है लव-जेहाद के झूठे प्रचार को खत्म करने की, लव-जेहाद की आड़ में उससे अपना स्वार्थ सिद्ध करने वालों को ठेंगा दिखाने की और इस बात को समझने की कि कोई भी धर्म प्रेम से बड़ा नहीं होता न उसके बिना पूरा होता है. धर्म रास्ते दिखाता है न कि रास्ते का रोड़ा बनता है.



Wednesday, August 20, 2014

आज़ादी ??

बीते सप्ताह हम सभी ने अपना 68वाँ स्वतंत्रता दिवस मनाया है और हर बार की तरह इस बार भी देश-भक्ति के गीत गाते-गुनगुनाते रहे, लड्डू बांटते रहे, सरकारी कार्यालयों में गोष्ठियां करते रहे, यहाँ वहाँ पंडाल लगा कर देश-ओ-जूनून के नारे लगाते रहे, कसमें खाते रहे, रेलियाँ निकाली गयी, नाटक-नाटिकाएं रखी गयीं और अगले दिन तक सब फिर एक बार सभी अपने पुराने ढर्रे पर आ गए.
सफ़ाई कर्मचारी बीते दिन के कचरे संग टूटे-फटे झंडे भी समेट कर ले गया और कहीं कचरे संग झंडे जल गये...राख हो कर उड़ गये. लोगो ने शाम तक गुज़रे दिन का दम भरा और देशभक्ति पूरी हुई.

आप सभी को शायद हैरानी हो पर आज आज़ादी का असली जश्न और हश्र यही है. वो दिन अब सिर्फ किताबों में और पुस्तकालयों में ही सुनने और पढ़ने को मिलेगा जिसे सच्ची आज़ादी का दिन कहते हैं जिसके जश्न के लिए हमारे वीरों/स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने लहू, अपने जीवन का बलिदान दिया.

नये प्रधानमंत्री का नया भाषण, उनके लुभावने वादे, देश की समस्याओं पर उनका अफ़सोस, अच्छे दिनों का सुनेहरा सपना और देश को बेहतर और विकसित बनाने की उनकी फिरकियाँ शायद आप सभी को इस बार कुछ नयी लगी हो पर उनका हश्र वही है जो सालों से होता आ रहा है.

कभी सोचा है आप सभी ने हम किस बात का जश्न मनाते हैं ? आज़ादी का या सत्ता के हस्त्रन्तरण का या इस बात का कि हममें अभी साहस बाकी है ज़ुल्म  सहने का/तानाशानी सहने का? जिस देश की आधी आबादी दबी, कुचली, तिरस्कृत, शोषित, अशिक्षित, पिछड़ी, उपेक्षित, अनादरित हो वो देश कैसे अपनी आज़ादी का जश्न मना सकता है और अगर ये जश्न है तो उसका जो इस आधी आबादी पर अपने जुल्म और तानाशानी का परचम लहरा रहा है.

ऐसा नहीं की सिर्फ भारत ही आज़ाद हुआ और इसलिए इसकी आज़ादी इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज़ है बल्कि भारत का स्वाधीनता आन्दोलन और उसके लिए जो कदम उठाये गये वह समूची मानव जाति को ऊँचा उठाने का सामर्थ्य रखता था । इस आन्दोलन ने यह बता दिया की आज़ादी किसी जाति, किसी धर्म किसी विशेष व्यक्ति का अधिकार नहीं वरन सम्पूर्ण मानव जाति का हक है जिसमें न केवल पुरुषों की साझेदारी रही बल्कि महिलाओं का भी बराबरी का हिस्सा रहा.

देश की आज़ादी के बाद से ले कर अब तक जिन पार्टियों ने अपनी सरकार बनायीं उन्होंने शुरुआत सत्ताधारी होने से की जो अब तानाशाही में बदल गयी. देश की महत्वपूर्ण शाखाओं को अपने आधीन कर उनसे अपने मनचाहा कार्य कराते रहे, कानून को कठपुतली की तरह नचाया और दीमक की तरह देश को खोखला कर दिया. अपनी वंशवादी सत्ताधारी सोच की कुछ पार्टियाँ इतनी आधीन हो गयीं कि उन्होंने खुद को सत्ता में बने रहने देने के लिए बाहरी ताकतों का सहारा लिया. झगड़े, आतंक और हमले करवाएं उसके बाद भी हर बार नये तरीकों से चुनाव में बहुमत हासिल किया और देश पर हुकूमत की. ये कुछ शातिर पार्टियाँ ही थी जिनको विश्वासपात्र मान कर पुरे देश ने उन्हें सरकार बनाने के लिए चुना.....पर कहते है न ‘’बन्दर के हाथ नारियल आ जाये तो वो उसे लुड़का-लुड़का के घूमता है’’ यही हाल इन पार्टियों का रहा है उन्हें पता ही नहीं होता की कोई मुद्दा खत्म कहाँ हुआ और शुरुआत कहाँ से करनी है. इनके हिसाब से जो पहले किया गया वो सभी बकवास और स्वार्थ के कारण किये गये कार्य थे जिन्हें अपनी सत्ता के आने के बाद फिर से शुरू किया जाता है और इसी तरह देश की सरकारें हर बार आधे से ज़्यादा समय दूसरे के कार्यों की निंदा और उनके कार्यों पर पानी फेरने में लगी रहती है और बाकी समय अपने घर भरने में तो फिर देश के लिए समय कहाँ है इनके पास ......कभी सवाल करिए इनसे फिर देखिये ये आप पर बददिमाग होने का लांछन लगा देंगे, इससे गर इनका मन न माना तो विरोधी पार्टी का कह कर नया हंगामा खड़ा कर देंगे.

सरकार का यह दोष है कि इनके पास देश के आलावा हर मुद्दे पर चर्चा करने, हंगामा करने और आतंक फैलाने का पूरा वक़्त है. आये दिन सुनने में आने वाले किस्से इन लोगों की ठिठोली लगती है. किसी नेता के बारे में अपनी किताब में ‘’उसकी सच्चाई’’ लिख दो तो फिर साल के 4 माह तक यही बात चर्चा में रहेगी, एक दूसरे पर टिका-टिपण्णी करने में साल के 6 माह निकाल देते हैं बाकी के मसले इन सभी मसलों के साथ पिसते रहते हैं और सारी समस्याएं जस-की-तस बनी रहती हैं.
कभी कभी ऐसा लगता है की ये देश न हुआ सांप-सीढि का खेलने का मैदान हो गया और ये पार्टियाँ लगी हुयी हैं पासे फेकने में....सबको अपने दांव दूसरे से ज़्यादा बेहतर खेलने हैं और उसके लिए लगे रहते हैं देश की धज्जियाँ उड़ाने में.

गरीबी, अशिक्षा, बेकारी, महिलाओं और बच्चो का शोषण, भूखमरी, आपदाएं, ऐसे कई मुद्दे हैं जो दिन प्रतिदिन अपने भयानक रूप में आते जा रहे हैं जिनका तोड़ नहीं बल्कि जोड़ तलाशा जा रहा है. अपराध बाद में होता है उससे पहले ही उससे बचने के तरीके निजाद कर लिए जाते है. कानून भी इन सब के प्रति बेहद उदासीन व्यवहार रखता है और सरकार सिर्फ ज़हर उगलती है. सरकारी मुलाज़िम हो कर जैसे नेताओं को इस बात का हक़ मिल जाता है कि वह कभी भी किसी के लिए भी कुछ भी बोल सकते हैं और किसी भी हद तक जा कर बोल सकते हैं उन्हें इस बात का फर्क नहीं पड़ता कि उनका कहना किसी अपराधी को उकसा रहा है या किसी अपराधी की मदद कर रहा है.

राजधानी दिल्ली जैसे शहर में बलात्कार की घटना को छोटी घटना मान कर तवज्जों नहीं दी जाती बल्कि ये कहा जाता है की इन सब के आलावा भी कई और मसले हैं जिन पर चर्चा की जा सकती है. मतलब साफ़ है किसी नेता और किसी प्रशासन से जुड़े व्यक्ति के लिए बलात्कार के लिए आवाज़ उठाना ‘’ध्यान देने योग्य’’ बात नहीं है ये तो होते ही रहते हैं. निर्भया बलात्कार/हत्या कांड के बाद से जैसे पूरे देश में एक चलन जैसा हो गया की रेप करो और हत्या कर दो ‘’न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी’’ और यही होता आ रहा है.
देश में हर दिन बलात्कार के बाद हत्या की जा रही है और सरकारें, प्रशासन, कानून सब मूक-बधिर जैसे खड़े हैं हुज़ुमा लगाये और इस बात पर बहस कर रहे हैं कि ‘’तू करे या मैं करू’’ जिसका परिणाम यह है की करता कोई कुछ भी नहीं और अपराधी बहुत आराम से अपराध कर आज़ादी से घूमता रहता है.

जहाँ भूखमरी, गरीबी से मरने वालों की संख्या बढ़ती जाती है वहीं नेता लोग अपने-अपने खाने के लिए लड़ते हैं जिसके न मिलने पर कोई भी अव्यवहारिक बर्ताव कर बैठते हैं. ये भी बड़ी ताज्जुब की बात है कि जिनके घर अनाजों से पटे पड़े हैं वह लोग खाने के पीछे लड़ते हैं तो इनसे अच्छे और जायज वो लोग हैं जिनके पास खाने के लिए एक वक़्त की रोटी भी नहीं है.

नेताओं के बारे में जितना कहा जाए शायद कम ही रह जाता है। देश पर जब भी आपदाएं आईं, नेताओं ने सबसे पहले अपने उल्लू सीधे किये. आपदाओं की आड़ में सरकारी खज़ाना खा गए, कुछ पीड़ितों तक पहुचाया और बाकी गटक गये. इस को आड़ बना कर चुनावों के लिए राजनीति चल दी, विरोधी पार्टी को चोर और खुद को साधू बताते रहे. ये देखकर शर्म आती है कि दुखी लोगो की मदद का पैसा भी ये लोग हड़प कर जाते है और उसका पूरा चुनावी फ़ायदा भी लेते हैं न जाने किस मिट्टी के बने हैं ये सभी .

जहाँ बेकारी के कारण युवा आत्महत्याएं कर रहे हैं वहीँ देश की शिक्षा प्रणाली हाशिये पर खड़ी है. देश का मेहनती युवा दिन-रात एक कर पढाई करता है और जब पेपर देने जाता है तो उसका रिजल्ट कभी नहीं आता, कईयों को डिग्रियां ही नहीं मिल पाती, नौकरी का फॉर्म भरते भरते कब 22 से 44 का हो जाता है उसे खबर ही नहीं होती.  कुछ परीक्षाओं में परिक्षर्तियों के साथ भाषा माध्यम को ले कर सौतेला व्यवहार रखा जाता है. जिसका ताज़ा उदहारण यूपीएससी की परीक्षा के लिए किये गये छात्रों के आंदोंलन से देश के सामने आया.
जिसमें छात्रों की मांग हिंदी को भी परीक्षा में बराबरी का स्थान देने के लिए थी जिस तरह से परीक्षा में अंग्रेजी को स्थान दिया गया है उसी तरह हिंदी माध्यम के छात्रों को ध्यान में रखते हुए हिंदी भाषा को भी परीक्षा का हिस्सा बनाया जाये परन्तु हुआ क्या ?
छात्रों की एक जायज़ मांग को राजनीति का ठिठका बता कर, बरगलाने की रणनीति बता कर छात्रों की एक नहीं सुनी गयी बल्कि उनके साथ प्रशासन का व्यवहार बहुत ही हिंसक रहा. भूखे प्यासे छात्रों ने आन्दोलन को कई दिनों तक ज़ारी रखा और पुलिस की मार भी खायी. सरकार चाहे तो इस बात को एक बैठक में सुलझा सकती थी परन्तु ऐसा नहीं किया गया उन्हें इस बात का खुद पता नहीं है की परीक्षा का पैटर्न क्या रखा जाये और किस तरह से रखा जाये क्यूंकि इसके लिए वह जिस शिक्षित समूह का साथ लेती है उन्हें हिंदी नहीं आती और यदि सरकार छात्रों की इस मांग को मान लेती है तो पेपर कौन सेट करेगा? इतने कुशल, पढ़ाकू, बुद्धिमान शिक्षित लोग उन्हें फिर शायद न मिल सके लेकिन हर साल उन्हें नये छात्रों की टोली जरुर मिल जाएगी. 

देश के कुछ राज्यों में शिक्षा प्रणाली बहुत ही लज्जर हालात में है। राष्ट्र के सबसे बड़े सूबे कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश की हालत सबसे ज्यादा ख़राब है। कितने ही सालों से सरकारी नौकरी की आस लगाये छात्र किनारी की दुकान चलाने को मजबूर हो गए है. पढ़ाई के लिए लोगों से उधार ले कर नौकरी न मिलने पर परेशां हो कर कईयों ने आत्महत्या भी की लेकिन सरकार टस-से-मस न हुयी .

अखिलेश यादव ने चुनावों में अपने हित के लिए छात्रों को मुफ्त के लेपटॉप बांटे और कन्या विद्या धन जैसी लुभावनी योजनायें चलायीं लेकिन उनके सत्ता में आते ही सारे वादे पानी से धुल गये. नेताओं को लगता है युवाओं को रिझाने के लिए लेपटॉप और स्कालरशिप जैसी
फिरकी हमेशा काम करेंगी. ये क्यूँ भूल जाते है की ‘’काठ की हांड़ी एक बार ही चढती है’’ बार-बार नहीं.

ऐसा भी नहीं है की देश ने आज़ादी के बाद से खुद को नहीं समेटा....समेटा है, बनाया भी है खुद को पहले से बहुत बेहतर और इस काबिल भी बनाया है की दुनिया में आज सबसे बड़े प्रगतिशील देश के रूप में भारत को भी शामिल किया जाता है लेकिन इन सब के बावजूद  देश के घरेलु मसले इतने ज्यादा हैं की इन मसलों ने देश की अच्छाई को अपनी कमियों से छोटा कर दिया है और इस वजह से न केवल देश में बल्कि पूरी दुनिया में हमारा देश निंदा का पात्र बना हुआ है.

देश का राजनेतिक परिदृश्य ही कुछ ऐसा है कि  देश को भ्रष्टाचार का गढ़ कहा जाता है. लोकतान्त्रिक देश होने के बाद भी भारत सबसे ज्यादा भ्रष्ट और असंतुष्ट देश है. आज़ादी सही मायने में क्या है ये शायद आज किसी को नहीं मालूम होगा। सिर्फ़ अंग्रेजों के शासन से आज़ादी असल आज़ादी नहीं है. देश के स्वतंत्र होने के बाद से अब तक कुछ हालात सुधरे नहीं बल्कि बद-से-बदतर होते चले गये. कुछ विशेष जातियाँ/समुदायों के प्रति आज भी लोगो का रवैया बेहद बिगड़ा हुआ है. आज भी छुआ-छूत का दंश कुछ जातियाँ झेल रही हैं.

जैसा मैंने पहले कहा देश की आधी-से ज्यादा आबादी दबी, कुचली, तिरस्कृत, शोषित, अशिक्षित, पिछड़ी, उपेक्षित, अनादरित हो वो देश कैसे अपनी आज़ादी का जश्न मना सकता है और अगर ये जश्न है तो उसका जो इस आधी आबादी पर अपने जुल्म और तानाशानी का परचम लहरा रहा है.

मान लें घर के आधे लोग हर तरह की आज़ादी से जिये और बाकी के आधे कमरों में बंद रहे, भूखे, मारे-पिटे जायें, काम खूब लिया जाये और फिर उनका हर प्रकार का शोषण भी किया जाये तो सोचिये कैसा लगेगा .....भय लगता है न सोच कर .....कितनी भयंकर तस्वीर उभर कर आती है मन में ??

अपना देश भी कुछ ऐसी ही तस्वीर बन गया है और अब भय लगने लगा है. लोगो को समझना चाहिये की आपसी मत-भेद मिटा कर सहयोग और न्याय के साथ रहना ही असली आज़ादी है और इस बात के लिए हम एक दुसरे पर या सरकार/प्रशासन पर दोषारोपण नहीं कर सकते क्यूंकि इसके लिए हम सभी ज़िम्मेदार हैं. भारत एक लोकतान्त्रिक देश है जिसके हर चुनाव में पूरे देश के लोग सरकार बनाने में अपना योगदान देते हैं और यही शक्ति है जिसके बल पर हम सभी मिल कर अपने देश को असल और पूर्ण मायनों में आज़ादी दिला सकते हैं. हम सभी पढ़े-लिखे और अनुभवी लोग हैं, जिस तरह किसी से रिश्ता जोड़ते समय हम उसका अच्छा बुरा पता करते है उसी तरह अपना नेता चुनने में उसका अच्छा और बुरा अतीत और वर्तमान देखें, किसी प्रलोभन को भूल कर अपने भविष्य के लिए सच का साथ देना चाहिये.

हर देश में कमियां होती है लेकिन उस देश के लोगो से ये आशा की जाती है कि अपनी बेहतरी और अपने भविष्य की बेहतरी के लिए देश की कमियों को दूर करने  में अपना सहयोग दिया जाये. हमारे देश की घरेलू समस्याएँ हम सभी के सहयोग के साथ ही दूर की जा सकती है. आंखे खोलिए सच और झूठ को पहचाने, नेताओं की बरगलाने वाली बातों से दूर रहे, खुद समझें, जांचे-परखें, आँख मूंद कर विश्वास न करें. महिलाओं के प्रति स्वस्थ सोच रखें जितना ये देश किसी पुरुष का है उतना ही हर महिला का भी है. हर महिला किसी की माँ, बहन, पत्नी और बेटी है उसे सिर्फ वस्तु न समझें बल्कि उसका सम्मान करें और उसकी सुरक्षा का ज़िम्मा भी लें क्या पता कल आपमें से ही किसी की बेटी की आबरू किसी के सहयोग से बच जाए. हर बार पुलिस का मुंह मत ताकिये देश की बेहतरी में अपनी भी हिस्सेदारी रखिये.

तिरंगे के तीन रंग जिस तरह से एक साथ हो कर उसे देश का गौरव बनाते हैं उसी तरह इस बात को भी दर्शाते हैं की हम जब तक एक साथ नहीं होंगे, सहयोग से नहीं रहेंगे और सत्य का साथ नहीं देंगे तब तक हम सही मायने में आज़ादी नहीं माना सकते....

सोचिये....प्रयत्न करिए.....असल आज़ादी अभी दूर है ....विचारिये और अपनाइये.