Friday, July 10, 2015

अब तेरा क्या होगा ‘मनरेगा’ !!

भारत के ग़रीब कामगार तबक़े की ज़िंदगी पर गहरा असर छोड़ने वाले महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहना मिली लेकिन आज यह योजना संकट में है.

साल 2005 में पारित इस योजना से भारत के सबसे पिछड़े और ग्रामीण इलाक़ों में रोज़गार की स्थिति में काफ़ी सुधार आया लेकिन वर्तमान सरकार इसे लेकर उत्साहित नहीं है. जिसके चलते इस कार्यक्रम को धन आवंटन की कमी से जूझना पड़ा रहा है.
यह अधिनियम देश की नीतियों में एक बुनियादी बदलाव दिखाता है. रोजग़ार के नीतिगत प्रावधानों के रहते हुए यह अधिनियम भारत के ग्रामीण इलाक़ों में अकुशल श्रमिकों को 100 दिन के रोजग़ार को संविधान प्रदत्त अधिकार बनाता है. जिसके तहत किसी भी ग्रामीण को ज़रूरत पड़ने पर किसी लोक निर्माण परियोजना में काम दिया जा सकता है.
मनरेगा में पहले की सभी योजनाओं की तुलना में लोगों को ज़्यादा रोज़गार मिले. जबकि औसतन हर व्यक्ति को अधिनियम में निर्धारित 100 दिनों से कम ही काम मिला.

साल 2006-07 के प्रति व्यक्ति कार्य दिवस 43 दिन से साल 2009-10 में प्रति व्यक्ति 54 दिन रहा. जिसके बाद से इसमें गिरावट आई है. इसके बाद भी योजना में शामिल परिवारों और इससे मिलने वाले रोज़गार के दिनों की संख्या काफ़ी प्रभावशाली है. आधिकारिक आंकड़ों द्वारा साल 2008-09 में क़रीब 23.10 अरब प्रति व्यक्ति कार्य दिवस रोज़गार मिला जिससे हर साल लगभग पाँच करोड़ परिवारों को लाभ मिला. इसमें से क़रीब आधे प्रति व्यक्ति कार्य दिवस महिलाओं को मिले.

कई अध्ययनोंनुसार मनरेगा से ग्रामीण मज़दूरी और ग़रीबी पर सकारात्मक असर पड़ा है, रोज़गार के लिए पलायन रुका है, महिलाओं और एससी-एसटी का सशक्तिकरण हुआ है, ग्रामीण आधारभूत ढांचे का विकास हुआ है, उत्पादन क्षमता और संस्थानिक क्षमता बेहतर हुई हैं.

इस कार्यक्रम की वजह से स्त्रियों और पुरुषों के न्यूनतम मज़दूरी के अंतर में भी कमी आई है. महिलाओं को इसकी वजह से न्यूनतम मज़दूरी के लगभग बराबर मज़दूरी मिलने लगी है.

शोधकर्ताओं ने कृषि उत्पादकता पर ध्यान केंद्रित करते हुए अनुमान लगाया कि सही मायने में मनरेगा के तहत खुदे कुओं के वित्तीय लाभ की दर छह प्रतिशत तक है. लाभ की यह दर कई औद्योगिक परियोजनाओं के मुक़ाबले बहुत अच्छी है.

प्रधानमंत्री के गृह प्रदेश गुजरात में इस कार्यक्रम का प्रदर्शन फीका रहा है. इसलिए मौजूदा सरकार भी मनरेगा को लेकर ज़्यादा उत्साहित नहीं है. सरकार मनरेगा को फिर से 200 ज़िलों तक सीमित करना चाहती है और इसके लिए सभी प्रदेशों (भाजपा शासित समेत) को आवंटित की जाने वाली धनराशि में भी कटौती की गई है. सरकार ने कार्यक्रम के तहत मैटेरियल कम्पोनेंट का अनुपात भी बढ़ा दिया है जिससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा ही मिलेगा.
आधिकारिक आंकड़ों और फ़ील्ड रिपोर्टों के अनुसार केंद्र में भाजपा सरकार आने के बाद से मनरेगा कार्यक्रम के प्रदर्शन में गिरावट आई है. साल 2009-10 में नरेगा के लिए 52 हज़ार करोड़ रुपये का बजट था जिसे 33,000 करोड़ रुपए कर दिया गया है.

इस कार्यक्रम के लिए सबसे बड़ी समस्या बक़ाया मज़दूरी बनती जा रही है जो इस समय क़रीब 75 प्रतिशत हो चुकी है. कई जगहों पर फंड की कमी, बढ़ती बक़ाया मज़दूरी और इसके भविष्य के प्रति अनिश्चितता के कारण यह कार्यक्रम लगभग थम गया है.

अच्छे परिणामों के बावजूद मरनेगा का भविष्य अनिश्चित है. मौजूदा सरकार इसे लेकर कोई उत्साह नहीं दिखा रही है.
महाराष्ट्र में मनरेगा के तहत जिन 4100 जगहों पर काम किया गया, वहां के अध्ययनों में पाया गया, "60 फीसदी काम से कृषि क्षेत्र को मदद मिली है जबकि 75 फीसदी काम प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर कृषि से जुड़ा हुआ था." वर्ल्ड बैंक ने 2009 में मनरेगा को 'विकास में एक बाधा' करार दिया था लेकिन 2014 में उसकी एक रिपोर्ट में इसे 'ग्रामीण विकास का एक शानदार उदाहरण' भी कहा.

एक तरफ तो मज़दूरी की दर बढ़ गई तो दूसरी तरफ़ बजट में कटौती कर दी गई. इसकी वजह से जितना काम किया जा सकता है, वही घट गया है. और इस वजह से लोगों का काफी नुकसान हो रहा है, क्योंकि जैसे लोग इसके बारे में सीख रहे थे, जानने लगे थे, वैसे ही काम कम होने, काम मिलना बंद हो गया.

लाखों महिलाएं और पुरुष मनरेगा के चलते ग्राम रोज़गार सेवक, प्रोग्राम ऑफिसर, इंजीनियर, डाटा एंट्री ऑपरेटर और सोशल ऑडिटर के रूप में तकनीक, प्रबंधन और सामाजिक कौशल सीख रहे हैं. मनरेगा में ज्यादातर काम करने वाले ठेका मज़दूर हैं, जो भविष्य में इसे अपने हुनर के रूप में प्रयोग में ला सकते हैं. इसे बंद करने से बेहतर होगा कि मनरेगा में निहित कौशल निर्माण की गतिविधियों को आगे बढ़ाया जाए. इस पूरे प्रोग्राम को आगे ले जाने का यही सबसे बेहतर उपाय है.







प्रियंका.......

डिजिटल इंडिया और भारत

दिल्ली के कनॉट पेलेस, कॉफ़ी हाउस के गेट के सामने कुछ गरीब परिवार लोगों का अधनंगा झुंड, एक छोटू लेपटोप(पाम टॉप) पर फिल्मी गाने, जय श्री कृष्णा, सास बहु सीरियल देखेते हुए मिल जायेगा. ये लोग उस पर टीवी चला कर देखते हैं और वहीँ उसी चबूतरें पर अपने गंदे चीथड़ों के साथ सो जाते हैं. 1 जुलाई को जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने डिजिटल इंडिया सप्ताह की घोषणा की, उस वक्त मुझे इस परिवार का ध्यान आया.

जिनके सर पर छत नहीं, दो वक़्त की रोटी का पता नहीं, बदन पर कतरनों के अलावा कालिख और कुछ नही उनके पास लेपटोप, वो भी टीवी जैसी सुविधा के साथ. वाकई यही इंडिया है डिजिटल इंडिया. ऐसा ही तो इंडिया चाहते हैं हमारे प्रधानमंत्री महोदय. जरुरत के समय जहाँ शहरों में ऑनलाइन टिकट नहीं मिलती, बैंक इनफार्मेशन नहीं मिलती, हॉस्पिटैलिटी कि सुविधाएं नहीं मिलती वहां देश के आखिरी घर तक इन्टरनेट पहुँचाने की यह योजना कितनी कारगर होगी इस पर संदेह है.

प्रधानमंत्री 'डिजिटल इंडिया' कार्यक्रम की घोषणा के समय कहते हैं कि 'शहर और गांव में सुविधा के कारण जो खाई पैदा होती है, उससे भी भयंकर स्थिति डिजिटल डिवाइड के कारण पैदा होती है.' अफसोस है कि इसका समाधान उन्होंने 'डिजिटल इंडिया' में खोजा. 'डिजिटल इंडिया' के जरिये अमीर और गरीब के बीच की खाई पाटने की कोशिश खयाली पुलाव जैसी है. भारत में बहुसंख्या ऐसी है जिसके पास सूचना के कोई साधन नहीं हैं. इसके मूल में अशिक्षा और गरीबी है. सूचना गरीबों तक सूचना पहुंचाने के लिए पहला उपाय उन्हें शिक्षित करना है. प्रधानमंत्री ने शिक्षा का बजट 16.5 प्रतिशत घटाने के सिवा शिक्षा पर कोई उल्लेखनीय पहलकदमी नहीं की है. शिक्षा के बिना ई-गवर्नेंस या मोबाइल गवर्नेंस की आम आदमी के लिए क्या उपयोगिता होगी? प्रधानमंत्री इन्टनेट से पहले शिक्षा की बात क्यों नहीं करते? 'डिजिटल इंडिया' से पहले 'एजुकेट इंडिया' पर बात क्यों नहीं करते?

सरकारी आंकड़े में 95 फीसदी स्कूल आरटीई के मानकों पर फेल हैं. 'डिजिटल भारत' के लिए साक्षर भारत चाहिए. ग्रामीण भारत के जिन स्कूलों में टाट पट्टी और ब्लैक बोर्ड नहीं हैं, वे 'डिजिटल इंडिया' को ओढ़ेंगे या बिछाएंगे? जिस देश को आज सस्ती दालें, सब्जियां और अन्य सेवाएं चाहिए उन्हें आप इन्टरनेट की सस्ती सुविधा देने की बात करते हैं तो आश्चर्य नहीं हंसी आती है.

डिजिटल इंडिया में बीएसएनएल और MTNL को छोड़ बाकी मोबाइल कंपनियों को इसका हिस्सा बनाया गया ताकि पहले सस्ता फिर मंहगा इन्टरनेट कर निजी कंपनियों का खजाना बढ़ाया जा सके. सबसे बड़ी बात इस सुविधा का इस्तेमाल वही कर पायेगा जिसका आधार कार्ड होगा. जिसके लिए सुप्रीमकोर्ट ने पहले ही कहा है कि, आधार कार्ड का कोई आधार नहीं है. और अब जब डिजिटल इंडिया आया है तो बिना आधार के ये बेकार है. यानी अब आधार बनवाएं तब डिजिटल हो पाएं.

भारत की कुल आबादी का 20% लोग ही इन्टरनेट इस्तेमाल करते हैं जिनमें भी सिर्फ 10% ही इन्टरनेट के जानकार है. (असल डिजिटल इंडिया तब होगा जब हम साउथ कोरिया की बराबरी करेंगे जहाँ 98% लोग इन्टरनेट इस्तेमाल करते हैं)

भारत का डाउनलोडिंग स्पीड में विश्व में 53वां स्थान है माने 2MBPS की स्पीड से डाउनलोडिंग होती है जो की सिर्फ शहरों में नेटवर्क की वजह से मुमकिन है. अब ये गाँव तक कैसे मुमकिन होगा ये सोचने का विषय है.

हर माह लगभग 500 रुपए इन्टरनेट में खर्च करने वाला मोबाइल यूजर शहरों में मुमकिन भी हो लेकिन गाँव में जहाँ दो वक़्त की रोटी के लिए भी दिन-रात का संघर्ष है वहां इस सुविधा का होना न होना एक ही बात है.

भारत देश में आज भी 40 करोड़ लोगों के पास पर्याप्त बिजली की सुविधा नहीं है जो यूएस और कनाडा की आबादी के बराबर है. ऐसे में कैसे पूरा होगा डिजिटल इंडिया का यह महेंगा ख्वाब? देश कि वास्तविक जरूरतों को नज़रंदाज़ कर यदि डिजिटल इंडिया सम्पूर्ण ग्रामीण भारत को रोटी, कपड़ा, मकान और शिक्षा दे सके तो निश्चित रूप से इस योजना को लागू करें. वरना अच्छे दिन तो पहले ही भारत भुगत रहा है.




प्रियंका.....

Wednesday, June 24, 2015

किन्नरों के बारे में इस तरह भी सोचिए...

इलाहबाद स्टेशन आते ही ट्रेन के डिब्बे में अचानक शोर बढ़ गया. मैं नींद से जाग गयी. बर्थ से उतरने ही वाली थी कि सामने से किन्नरों की पूरी टोली आ गयी और अपने चिर-परिचित अंदाज में बख्शीस मांगने लगी.

मेरी बर्थ के आस-पास के लोग नाक-मुंह सिकोड़ते हुए उन्हें कुछ पैसे देते या मना कर देते. किन्नरों की टोली ऐसा व्यवहार देख तैश में आ जाती और जोर-जोर से चिल्लाते हुए, हाथों को पीटते हुए, उनसे अभद्र व्यवहार करनेवालों को गालियां देने लगी.
जब उनमें से कुछ किन्नर मेरे पास आये तो मैंने कहा- मैं आपको कुछ दे तो नहीं सकती, पर आइए मेरे साथ बैठ कर चाय पीजिए. मेरा इतना कहना था कि सभी किन्नर शांत हो गये. मैंने तुरंत चाय वाले को बुलाया और सभी किन्नरों को चाय पिलाने के लिए कहा.
चाय की चुस्कियों के बीच ही सभी ने अपना नकली नाम बताया और असली भी. मैंने जैसे ही चाय के पैसे देने के लिए हाथ बढ़ाया, उन किन्नरों में से एक ने मेरा हाथ पकड़ लिया और कहा-नहीं हम तुम्हें पैसे नहीं देने देंगे.

लोग हमसे दूर भागते हैं, हमें देखना पसंद नहीं करते, हमें काम पर रखना पसंद नहीं करते, हमें अपशगुनी कहते हैं, लेकिन तुमने हमें अपने साथ चाय पीने को कहा. हमें और कुछ नहीं चाहिए. यही अपनापन हम चाहते हैं, जो तुमने हमें दिया है. बहुत दे दिया तुमने. इतना कह कर किन्नरों की टोली चली गयी और मैं सोचती रह गयी कि यह है हमारा समाज और इसके लोग.

किन्नर समाज से बहिष्कृत हैं. उन्हें लोग अपने आस-पास नहीं देखना चाहते, उन्हें काम पर नहीं रखते, तो भला कैसे ये लोग अपनी जीविका चलायेंगे. मांगेंगे ही फिर. कोई नहीं देगा तो झगड़ा भी करेंगे. आखिर किन्नर भी हमारे समाज का हिस्सा हैं, वे भी इसी दुनिया के हैं, फिर क्यों इनसे इतनी नफरत? इनके किन्नर होने से, या इनके संपूर्ण स्त्री और संपूर्ण मर्द न होने से?

पिछले साल अदालत ने लंबे समय से किन्नर समाज की चली आ रही एक मांग को स्वीकार करके एक पहल की थी, जिसके बाद इस पहल को आगे ले जाने का जिम्मा समाज का है. दरअसल, अब हमें यह देखना है कि ऐसे कितने लोग हैं, जो किसी किन्नर को अपने घर बुला कर उसके साथ गपशप, चाय-नाश्ता, खाना-पीना करेंगे? कितने लोग ऐसे होंगे, जो अपने पारिवारिक अनुष्ठानों में, शुभकार्यो में किन्नरों को मेहमान की तरह आमंत्रित करेंगे?
जब तक सामाजिक सोच को नहीं बदला जायेगा, किन्नरों को इंसान नहीं समझा जायेगा. इसके लिए खुद किन्नर समाज को भी अपने चारों ओर बनी बंदिशों का रहस्यमयी घेरा तोड़ने की जरूरत है. महज नाच-गाकर धनार्जन करने के बजाय, समाज की मुख्यधारा में आने का प्रयास उन्हें भी करना होगा.

हाल ही में पश्चिम बंगाल सरकार ने मानवी बंद्योपाध्याय नामक किन्नर शिक्षाविद् को कृष्णानगर महिला महाविद्यालय की प्रधानाचार्या नियुक्त किया. इसे एक बड़ा कदम माना जा रहा है. यह देश में अपनी तरह का पहला मामला है. इस तरह की पहल ही समाज को बदलने में सहायक होंगी. जरूरत है तो बस थोड़ी-सी सामाजिक जागरूकता की, पहल की और इस बदलाव को अपनाने की.

‪#‎प्रियं


Friday, June 12, 2015

''रोशनी का अँधेरा''

छह साल पहले जब मैं दिल्ली पहली बार आई थी, तब यह शहर मुझे नया-नया और कई मामलों में अलग और अद्भुत लगा। अक्सर मैं एकटक यहां की ऊंची खूबसूरत इमारतों और बसों में चलते हुए सड़कों को निहारा करती थी। लेकिन पिछले एक साल से यह दिल्ली मुझे बेहद साधारण लगने लगी है बल्कि कई बातों में बहुत ही गया-गुजरा शहर भी। कई बार ऐसा लगता है कि इतने सालों बाद ऊपरी चमक-दमक के अलावा दिल्ली का क्या बदला है! सड़कों, मेट्रो और कई दूसरी सुविधाओं के बावजूद मैं खोजने लगती हूं कि इतने सालों में मेरे आसपास क्या कुछ बदला है! तब फुटपाथों पर लाचारी में महज थकान उतारने की नींद में खोए लोग दिखते थे। आज भी रात में सड़कों से गुजर जाइए, अगल-बगल के फुटपाथों पर यही आलम दिख जाएगा।

तब बहुत सारे बच्चों को रोटी के लिए बिलखता देखा था मैंने, उन दृश्यों में क्या बदलाव आया है! उस दौरान शहर के शोर में मदद के लिए उठती आवाजें आमतौर पर घुट कर रह जाती थीं, आज हालात बहुत बदले नहीं हैं। बल्कि पहले के मुकाबले संवेदना की तलाश थोड़ी ज्यादा मुश्किल हो गई है। चौक-चौराहों पर भीख मांगते छोटे बच्चे कुछ नहीं मिलने पर कुछ मिल जाने की भूख में कई बार गाड़ियां साफ करते नजर आ जाते हैं।

दूर से यह दिल्ली अच्छी लगती है। लेकिन पता नहीं क्यों, पास से यही दिल्ली मुझे कई बार डरा देती है। यहां के अभिजात वर्गों की सुविधाएं और दूसरी ओर गरीब और भूखे लोगों को देख लगता है कि किन पैमानों पर हमारे यहां विकास की नीतियां बनती हैं। एक देश की दो शक्लें हैं। अब तक किसी को हिचक भी नहीं होती एक को ‘भारत’ और दूसरे को ‘इंडिया’ कहने में।

‘इंडिया’ विकसित देश है और भारत विकासशील। एक ‘देश’ में लोग वातानुकूलित कारों में घूमते हैं। उनके दफ्तर, घर, खरीदारी के लिए दुकानें या मॉल, सब कुछ वातानुकूलित हैं। इसलिए वे जिस ‘देश’ में सांस ले रहे हैं, वह यकीनन ‘विकसित’ है। दूसरी ओर, ‘भारत’ में लोगों के पास मरने के तमाम इंतजाम हैं, लेकिन जीने के लिए बमुश्किल एक भी नहीं। इस भयंकर गरमी और लू से अधिकतर गरीबों की जान आफत में है।

कड़ाके की सर्दियों में और बाढ़ में भी गरीब लोगों की ही जान जाती है। इस साल सख्त गरमी और लू से देश भर में तकरीबन दो हजार लोगों की जान जाने की खबरें आर्इं। लेकिन सरकार और मीडिया की नजर में यह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है। इसलिए किसी की मौत पर उसके परिवार को राहत या मुआवजा नहीं। जब भी कोई प्राकृतिक आपदा आती है तो अधिकतर मजदूर, किसान और गरीब लोग ही उसकी चपेट में आते हैं।

रोज घर से निकल कर दफ्तर जाने तक का समय मेरे लिए असहनीय होता है। वातानुकूलित बस में बैठने से पहले और उससे निकलने के कुछ ही पलों बाद हाल बेहाल हो जाता है। कभी-कभी मन होता ही नहीं कि घर से निकला भी जाए। लेकिन इन्हीं आग बरसाते दिनों में सड़कों पर हजारों लोग दिहाड़ी कमाने में लगे रहते हैं।

फ्लाइओवरों और पुलों के नीचे धूप की तपिश से बचते हुए, बस अड्डों या पेड़ों के नीचे सांस लेते हुए लोग दिखते हैं। दिल्ली से बाहर खेतों में किसान काम करते नजर आए जाएंगे। लेकिन इन सबका ‘इंडिया’ से क्या वास्ता! विदेशी मीडिया हमें यह बता रहा है कि आने वाले समय में भारत में भयंकर सूखा पड़ सकता है। लेकिन देश का मीडिया और यहां की सरकार इन सबसे बेखबर अपनी वाहवाही में लगी हुई है। देश के नेता विदेश दौरों में लगे हुए हैं और सब तरफ सिर्फ ‘अच्छे दिनों’ का शोर परोसा जा रहा है।

हाल ही प्रकाशित एक रिपोर्ट में भारत में भूखे लोगों की संख्या विश्व में सबसे ज्यादा बताई गई। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक भारत में उन्नीस करोड़ चालीस लाख भूखे लोग हैं। देश की आबादी का पांचवां हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे रहता है। हाशिये पर रहने वाले लोग हर आपदा में मरते हैं। लेकिन आजादी के अड़सठ साल बाद भी इस पर सरकार का ध्यान नहीं है।

नब्बे के दशक में शुरू हुए आर्थिक सुधार की नीतियों के बाद हाशिये पर रहने वाले लोग और भी बदतर हालत में जा चुके हैं। दूसरी ओर, देश के अभिजात तबकों और विदेश में रहने वाले प्रवासी भारतीयों के लिए लाभ के नए दरवाजे रोज खुल रहे हैं। प्रधानमंत्री आए दिन सवा सौ करोड़ नागरिकों के विकास की बात करते हैं। लेकिन उनके इस नारे में हाशिये के बाहर जी रहा समाज कहां है!

‪#‎प्रियंका‬....


Monday, June 8, 2015

'बस दो मिनट' पर एक बड़ा सा बवाल

मेरी पहली मैगी बड़ी ही बेस्वाद थी. आज भी याद है, मां ने मैगी दूध में डाल कर बनायी थी. उन दिनों टीवी पर मैगी का एक विज्ञापन बहुत चर्चित था. जिसमें बच्चे स्कूल की छुट्टी होते ही भाग कर घर आते हैं और टेबल पर प्लेटें और चमच पीटते हुए मैगी-मैगी गाते हैं और उनकी मां ‘बस 2 मिनट’ कह कर रसोई से मैगी लाकर देती है. स्कूली दिनों में यह 2 मिनट का जादू सर चढ़ के बोला था.

इस 2 मिनट की खुशियों की दास्तां 1947 से भी पुरानी है. मैगी भारत में तब आयी, जब नूडल्स भारत में पॉपुलर नहीं थे. मैगी को भारतीय अंदाज के साथ भारतीय संवेदनाओं से जोड़ कर पेश किया गया, जिससे मैगी ने जल्द ही हर घर में जगह बना ली. अब भारतीय बाजार में फास्टफूड में मैगी की हिस्सेदारी 70 प्रतिशत है. मैगी नेस्ले का प्रोडक्ट है. भारत में नेस्ले के मुनाफे में मैगी 30 प्रतिशत हिस्सेदार है. मैगी के 90 प्रतिशत उत्पाद भारत को केंद्र में रख कर बनते हैं, लेकिन अचानक पैदा हुए इस ‘2 मिनट पर बवाल’ पर सभी हैरान हैं.

मामला उत्तर प्रदेश के खाद्य सुरक्षा प्राधिकरण से शुरू हुआ, जहां मैगी के 12 अलग-अलग सैंपल लेकर केंद्र सरकार की कोलकाता स्थित लैब में टेस्ट कराया गया. मैगी में तय मात्र से 7 गुना अधिक लेड (सीसा) की मात्र पाया गया. यह मामला इतना बढ़ गया कि उत्तर प्रदेश की सरकार को मुकदमा दर्ज कराना पड़ा, जिसके चलते मैगी पर देशभर में बैन लगा दिया गया है.

यह शायद ‘मेक इन इंडिया’ की शुरुआत है, वरना वर्षो से जो कंपनी सिर्फ मैगी जैसे ‘क्विक फूड’ की वजह से पूरी दुनिया की नंबर एक कंपनी बनी हुई थी वो अचानक ही इतनी बड़ी लापरवाही कैसे कर सकती है? मैगी नेस्ले के सबसे बड़े ब्रांड में से एक है. इसका सालाना ग्लोबल कारोबार एक अरब डॉलर से भी ज्यादा है. गौरतलब है कि कुछ ऐसे भी प्रोडक्ट हैं, जो पूरी दुनिया में बैन हैं, लेकिन भारत में नहीं और हम सभी उनका लगातार उपभोग करते जा रहें हैं.

महिलाओं के कॉस्मेटिक्स जैसे फेयरनेस क्रीम्स में 44 प्रतिशत मरकरी मिली, लिपिस्टिक में 50 प्रतिशत क्रोमियम मिला और मसकारे में 43 प्रतिशत निकिल मिला. सीएसइ स्टेटमेंट के अनुसार, अरोमा मैजिक फेयर लोशन में सबसे ज्यादा 1.97 पीपीएम मरकरी मिली. ओले नैचुरल व्हाइट में 1.97 पीपीएम मरकरी और पॉन्ड्स व्हाइट ब्यूटी में 1.36 पीपीएम मरकरी मिली. इसी कतार में कई और बड़े ब्रांड भी हैं, लेकिन इन पर किसी भी तरह की कोई कार्यवाही नहीं की गयी.
ब्रांडेड शहद, जिनमें डाबर, पतंजलि, हिमालया, बैद्यनाथ, खादी और कुछ बाहर के ब्रांड शामिल हैं, जिनमें हानिकारक एंटीबायोटिक पाये जाते हैं, इन्हें बाहर बैन किया गया है, लेकिन भारत में नहीं.

दरअसल, 2 मिनट बवाल का अचानक होना कई सवाल पैदा करता है, जो न सिर्फ ब्रांड, ब्रांड अंबेसडर, ग्लोबल कारोबार से जुड़ा हुआ है, बल्कि भारत के बाजार के लिए भी प्रश्नचिह्न् है. देखना यह है कि मैगी की जांच के बाद यदि सचमुच यह सेहत को नुकसान पहुंचानेवाला हुआ, तो अब हमें कोई और विकल्प ढूंढ़ना होगा.


#प्रियंका....



Wednesday, May 20, 2015

मोदी महान ???

हमारे यहां एक क्षेत्रिये कहावत है ‘’दे भड़ी में आग बाबा दूर भये’’ ये कहावत उस वक़्त मेरे मन में तेज़ी से गूंजती हैं जिस समय प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी खबरों में होतें हैं. चुनाव जीतने और सरकार बना लेने के एक साल बाद भी ये कहावत अब तक मोदी पर सटीक बैठती है. इसके कई कारण हैं जिसे आप चाहते हुए भी नज़रंदाज़ नहीं कर सकते.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभी परियोजनाओं को यदि जाना, समझा जाए तो ये सभी कार्यशीलता में सामंजस्य की कमी नजर आती है जिसका प्रमाण उनकी धुन में नज़र आता है. जिसे कहावत में ‘’दे भड़ी में आग बाबा दूर भये’’ यानी उकसा कर किनारा कर लेना कहा जाता है. इसका मतलब यह है कि मोदी देश में, विदेश में दनादन बातों नुमा गोलियों की बौछार कर रहे हैं और फिर सबकुछ छोड़कर ‘नेक्स्ट प्लीज’ कर अगला विचार पकड़ लेते हैं चूंकि योजनाओं की बारीकी उन्हें उबाऊ लगती है. फिर वह कोई भी मसला हो, मोदी एक कदम रख तुरंत छलांग लगा देते हैं.

सबसे पहले मोदी का चुनावी हथकंडा काला धन. चुनाव प्रचार के दौरान मोदी ने इस बारे में बहुत बढ़-चढ़ कर कहा. जनता का पैसा वापस ला कर उन्ही को देने का वादा किया था जबकि चुनाव बाद इस मसले पर मोदी शांत हो गए और काले धन की नाकामी के बारे में अब उनके सहयोगियों को जवाब देना पड़ रहा है.

सरकार बनाने के तुंरत बाद मोदी ने दो जोरदार परियोजनाएं शुरू की- स्वच्छ भारत अभियान और मेक इन इंडिया.

स्वच्छ भारत अभियान की घोषणा के बाद लोगों ने सफाई अभियान से ज्यादा मोदी एंड पार्टी की नोटंकी का जम के आनंद लिया. हर तरफ मोदी एंड पार्टी के आडम्बरों की चर्चा होती सुनाई दी. इस योजना को गाँधी की इच्छा और उनके कदमों पर चलने की बात बता कर खूब तारीफें बटोरने की कोशिश की गई लेकिन ये सभी युक्तियाँ काम न सकीं. भारत की सड़कछाप संस्कृति को बदलने की कोशिश करना जिसके लिए गांधी को ढाल बना कर मोदी स्वयं अपने व्यक्तिगत उदाहरण से देश को शर्मसार कर रहे थे.

स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत अख़बारों में आए विज्ञापनों से तो ऐसा ही लगता रहा जैसे आने वाले दिनों में भारत दुनिया का सबसे ‘क्लीन एन क्लियर’ देश नजर आएगा लेकिन क्या ऐसा मुमकिन है कि जिस देश में आधी से ज्यादा आबादी खुले में शौच जाती है, सड़क किनारे मूत्रत्याग करती है, दीवारों को पीक मार-मार कर रंगती है और आस्था के नाम पर नदियों में तमाम आडम्बर विसर्जित करती है वो आबादी इस योजना को सफल होने देगी ?

स्वच्छ भारत अभियान के नाम पर मंत्री-संतरियों ने चौतरफा अंगेल बना-बना कर सिर्फ सेल्फी ही खिंचवाई हैं. बाकी कहीं भी कोई भी बदलाव नजर नहीं आया.

मोदी अच्छी तरह जानते है की स्वच्छ भारत अभियान जैसी योजनाएं भारत में कभी सफल नही हो सकती लेकिन अगर अवसरवादी नेता-अभिनेताओं के झाड़ू पकड़ने पर और मोदी के बधाई वाले ट्वीट से भारत की सफाई हो पाती तो हमारे देश का हर शहर टोक्यो नहीं तो सिंगापुर तो बन ही गए होते लेकिन वास्तविकता कि शहर आज भी गंदे ही हैं.

अब मेक इन इंडिया को ही लीजिए. ये क्या है? यह कैसे काम करेगा? भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर ने पहले ही इसके बारें में कह दिया कि इसका कोई ख़ास महत्व नहीं है. लेकिन यह ख़ुद भी पचासों सवाल खड़े करता है, मसलन, औद्योगिक विकास के लिए ज़मीन कहाँ से आएगी? भ्रष्टाचार और लालफ़ीताशाही कहाँ ख़त्म होने वाली है? या तैयार माल कैसे और कहाँ बिकेगा? वग़ैरह-वग़ैरह...

जबकि मोदी 'मेक इन इंडिया' के बहाने कॉरपोरेट घरानों के मुनाफ़े के लिए देश के जल-जंगल-ज़मीन और संसाधनों ख़ासकर किसानों व आदिवासियों की ज़मीन को कौड़ियों के भाव आसानी से व बेरोकटोक उपलब्ध कराने की साजिश कर रहे हैं.

एक तरह जहां भूमि-अधिग्रहण बिल को लेकर मोदी गंभीर नहीं दिखते वहीँ दूसरी और ‘मेक इन इंडिया’ प्रोजेक्ट की बात करते हैं जो मोदी की नियत में विरोधाभास की fस्थति को उजागर करता प्रतीत होता है. मोदी के पास किसानों के लिए कुछ नही है जबकि विदेशों में और अडानी-वीरानी को देने के लिए भरपूर है. यही इनका मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट है जो सिर्फ इंडिया के लिए है ‘भारत के लिए नहीं’.

इसके अलावा विदेश नीति की बात करें तो जिस एक बात के लिए पूरी दुनिया में मोदी की तारीफ हुई वह है उनकी ऊर्जावान विदेश नीति. उन्होंने अमरीका के साथ उस समझौते को सफलतापूर्वक अंजाम दिया जिसे पूरा करने में उनकी पार्टी ने मनमोहन सिंह की राह में रोड़े अटकाए थे. लेकिन ये विदेश नीति ‘कूटनीति’ का हिस्सा थी इसलिए यह सफल हुई.

डेटा जर्नलिज्म वेबसाइट इंडिया स्पेंड में इस सप्ताह आए एक लेख के मुताबिक़ 'कमज़ोर, भ्रष्ट, अक्षम और कुनबापरस्त' मनमोहन सिंह सरकार और मजबूत, कठोर और साफ सुथरी मोदी सरकार का प्रदर्शन अपने कार्यकाल के पहले साल में क़रीब एक जैसा ही प्रदर्शन किया, बल्कि जानकारों का यहाँ तक कहना है कि मोदी ने कोई एक भी नया काम नहीं किया ‘सिर्फ शगूफे छोड़ें हैं’’.

इसमें कोई शक नही की मोदी मात्र एक अच्छे वक्ता हैं और इससे ज्यादा कुछ नहीं. लेकिन वह यह भूल रहें है की देश चलाना बातों का खेल नहीं है.

मोदी नदियों की सफाई के लिए नया कानून लाने की बात करतें हैं लेकिन गए सालों में जितने नदियाँ, तालाब, नहरें आदि सूख गए, जिनका अस्तित्व ही मिट गया उनके पुनः उत्थान के लिए कोई विचार तक नहीं करते. हालाकि नदियों के लिए कानून बनाने के लिए भी मोदी गंभीर नजर नही आते. ये मात्र हिन्दू धर्म को हथियार बना कर हिन्दुओं की भावनाओ के साथ खिलवाड़ जैसा है.

हाल ही मैं विदेशी दौरे से लौटने से पहले मोदी ने ट्वीट किया कि- ‘पहले आपको भारतीय पैदा होने पर शर्म महसूस होती थी. मगर अब आपको अपने देश का प्रतिनिधित्व करने में गर्व महसूस होता है. विदेश में रह रहे भारतीयों ने पिछले साल सरकार बदलने की आस लगाए बैठे थे’. इस ट्वीट के बाद मोदी का लगातार विरोध किया गया लेकिन मोदी इस बात के लिए भी गंभीर नजर नहीं आए की उन्होंने क्या और क्यों कहा है. हमेशा की तरह इस बार भी मोदी ने अपने आप को सर्वश्रेष्ठ बताने के लिए ट्वीटर पर यह टिप्पणी की.

मोदी शायद अपने शौक पूरे कर रहें हैं. वो ये जानते है की भारत में कुछ भी कभी भी ‘जल्दी’ नहीं बदल सकता, उसको बदलने में सालों लगतें हैं इसलिए मोदी भी किसी भी योजना, कानून, मुद्दे को शुरू करते ही दुसरे मसले के लिए योजना बनाना शुरू कर देते हैं. मोदी सिर्फ सेल्फी लेने के लिए गंभीर नजर आतें हैं बाकी सब वैसा ही चलेगा जैसे सालों से चलता आ रहा है.

Wednesday, April 8, 2015

तुम बीज हो...

तुम
बीज हो...

यदि तुममें प्राण हैं तो
कभी-न-कभी, कहीं-न-कहीं
तुम अपनी मिट्टी, अपना पानी और
अपना आसमां पा ही लोगी
और पैदा करोगी हजारों बीज
जो तुम्हारी छांव में अपनी पौध
तैयार करेंगे
पर पहले यकीन करो
की तुम प्राण हो, तुम जीवित हो और
तुम आगाज हो....


तुम
बीज हो...

Wednesday, April 1, 2015

अस्तित्वहीन होने से बेहतर है पहल करना...

अभी कुछ ही दिन हुए जब दीपिका पादुकोण का वीडियो ‘माई च्वॉयस’ वायरल हुआ और अब इसे लेकर विवाद शुरू हो गया है. वीडियो में दीपिका ये कहती दिखतीं हैं कि "यह उनका बदन है तो सोच भी उनकी है और फ़ैसला भी उनका है. कोई औरत किससे शादी करे, किससे यौन संबंध बनाए और किसके बच्चे की मां बनें, यह फ़ैसला उसे ही करना है, किसी दूसरे को नहीं."
इस वीडियो में कुछ भी ऐसा नहीं जो 'ज्यादा हो या अधिकार से अलग' हो और मैं इस वीडियो का समर्थन करती हूं. सवाल है कि इसमें विवाद का मुद्दा क्या है? यह वीडियो तो स्त्री सशक्तीकरण की बात करता है। इसका विरोध क्यों और कौन कर रहा है?

बेशक इस आवाज के पहले व्यापक स्त्री समाज के ज्यादातर हिस्से को अभी अपनी अस्मिता, गरिमा और आत्मसम्मान की लड़ाई लड़नी है, उसे पुरुष सत्ता से छीनना है. हमारी प्राथमिक लड़ाई यही होनी चाहिए. मगर दीपिका के 'माई च्वॉयस' की बात को उसके संदर्भों में देखा जाना चाहिए. सीधी-सी बात है। जो महिलाएं बचपन से 'ये करो, वो करो, ये न करो, वो न करो', 'ऐसे चलो, कम हंसो, धीरे बोलो, पुरुषों से दोस्ती नहीं, जल्दी शादी और फिर बच्चा, तलाक नहीं भुगतो, शादी से पहले कुछ नहीं, सेक्स सिर्फ पति के साथ, वह भी जब वह चाहे तभी, विधवा मतलब दुनिया ख़त्म, बुर्के-परदे में ढक कर रहो, पढ़ो-लिखो, पर रोटियां ही बनाओ और न जाने किस-किस तरह की मानसिकता के बीच पलती बढ़ती हैं और कभी भी अपने बारे में, अपने सुख के बारे में सोचती तक नहीं, अपने हिस्से के तमाम सुख वह अपने 'पति-परमेश्वर' को सौंप देती है। हर महिला इस पितृसत्तात्मक परिवेश में जन्मी/पली-बढ़ी है. पर इनमें से अधिकतर महिलाओं का जन्म ऐसे माहौल में नहीं हुआ, जिन्हें जन्म से ही अच्छा रहना, खाना, शिक्षा, खुला माहौल मिला, चुनने की आज़ादी मिली। इसलिए ऐसी महिलाएं अगर इस वीडियो का विरोध करें तो इसे कितना सही कहेंगे! खुद से अलग हो कर 'सभी के बारे में' सोचें.

इस वीडियो के जवाब में लगे हाथ पुरुषों का 'माई च्वॉयस-मेल वर्ज़न’ भी आ गया जो महिलाओं के इस 'मेरी पसंद' का 'मुंहतोड़ जवाब' बताया जा रहा है. लेकिन इसे सुनने के बाद मैं इसे निरा बकवास घोषित करती हूं। इस वीडियो में पुरुष कहते हैं, “यह मेरा बदन है और इसलिए इससे जुड़े फ़ैसले भी मेरे हैं. मैं रोज़ाना जिम जाऊं या तोंद रखूं मेरी मर्ज़ी, मेरा पड़ोसी इंजीनियर है, पर मैं नहीं, तो क्या हुआ? आख़िर मेरी गाड़ी कितनी बड़ी है, यही तो महत्वपूर्ण है!”
आपका बदन? आपके फैसले? जिम? तोंद? गाड़ी? सब बकवास! आप बदन छिपाते ही कब हैं जो आपके बदन पर सवाल पैदा हो? जब मन में आता है, जहां चाहे नंगे हो जाते हैं। आपके फैसले कौन-से हैं? नंगे घूमने के? जिम हर पुरुष नहीं जाता, न हर पुरुष की तोंद है. पड़ोसी जो भी हो, अधिकतर पुरुष इसकी परवाह ही कब करते हैं. और गाड़ी तो तब आएगी न, जब अच्छा कमा लिया जाए। ये फिर कहते हैं- “मैं प्रेमिकाएं बदलता रहूं या शाश्वत प्रेम करूं, मेरी मर्ज़ी. मेरा घर, मेरी गाड़ी बदलती रहेगी, पर तुम्हारे प्रति मेरा प्रेम हमेशा रहेगा. मैं देर रात घर लौटूं या सुबह, क्या फ़र्क पड़ता है? मैं किसी के साथ यौन संबंध रखूं और किसी के साथ शादी करूं या नहीं करूं, मेरी मर्ज़ी. मैं विवाह पूर्व और विवाहेतर यौन संबंध रखूं, मेरी मर्ज़ी.
इन बातों पर अपना दिमाग खर्च करना बेमानी है। लेकिन इससे इतना जाहिर हुआ है कि छटपटाहट से भरी हड़बड़ी में पुरुषों की ओर से जो यह जवाब आया है, उसके मूल से महज हताशा और मर्दाना कुंठा बोल रही है, और इस पर सिर्फ हंसा ही जाना चाहिए।
ये निरर्थक बातें हैं। प्रेमिकाएं बदलना तो यों ही पुरुष-फैशन है, आज से नहीं, पता नहीं कब से। मर्दों की मर्ज़ी सेकेण्ड में बदलती रही है, घर भी, गाड़ी भी और प्रेम भी. हां, आप किसी को गंभीरता से चाहें, ऐसा कम ही होता है. आप घर लेट ही आते हैं अक्सर और आपको माँ, बहन, बीवी कोई कुछ भी कहे कभी कोई फर्क नहीं पड़ा और ये भी जमानों से. आप सेक्स के लिए शादी का कब इंतज़ार करते हैं? और शादी भी तभी करते हैं जब परिवार का दबाव हो. जिम्मेदारियां आपके बस की नहीं (अधिकतर पुरुष ऐसा ही करते हैं)। आप शादी से पहले और शादी के बाद भी एक नहीं, एक से अधिक यौन सम्बन्ध रखते हैं और यह भी आप शान से अपने मित्रों को बताते हैं. तो इसमें आपकी पंसद क्या? यह तो आपकी वास्तविक इच्छा है।
मर्दवादी व्यवस्था में तैयार मानसिकता का साम्राज्य समाज के बनने के बाद से ही रहा है और जिस पसंद जिस च्वॉयस की बात ये वीडियो करता है वह सभी पुरुषों को 'अधिकार स्वरूप' पीढ़ी-दर-पीढ़ी 'सामाजिक स्वभाव' के तौर पर मिलते आ रहे हैं. अभावों में महिलाएं जी रहीं हैं. अधिकार उन्हें चाहिए. जोर-जबरदस्ती, गंदी घटिया सोच का सामना महिलाएं करतीं हैं, हक़ पुरुष जमाता है महिलाओं पर। आज़ादी उन्हें चाहिये. बात यहां सेक्स की आज़ादी की नहीं बल्कि महिलाओं की चाह की है, अस्मिता, गरिमा और अपने बारे में फैसले पर अपने अधिकार की है। विरोध परतंत्रता का, पितृसत्ता का, घुटन का, अधिकारों के हनन का, जानवरों जैसे व्यवहार का, विरोध मर्दवादी सोच का.

#mychoice

Tuesday, March 17, 2015

अवतार पुराण

ये किसान,
आत्महत्या, गरीबी,
बलात्कार, हत्याएं छोड़ो
क्या बकवास करते हो

जानते नहीं हो ....
वो विष्णु अवतार है
उसे सब पता है, ये सब उसकी ही लीला है

लाओ भाई लाओ ....
फूल सजी थाली और
अगरबत्ती ले आओ

लाशों के ढेर पर
चौकी सजी है विष्णु अवतार की

भजन गाओ बस भजन.

Thursday, March 12, 2015

बदले बदले से...आप !!

समाज में परिवर्तन लाने के लिए आप एक संगठन बनाते हैं. आपके नेत्रत्व में संगठन बेहतर काम करता है और जल्द ही समाज के द्वारा स्वीकार लिया जाता है. आप ने पहले से मौजूद संगठनो की कार्यशेली पर सवाल उठाया, उनके अपारदर्शी फैंसलों पर ऐतराज जताया और समाज को बाकी संगठनों से बेहतर, पारदर्शी और प्रगतिशील तरीके से काम करने का वादा किया. फिर आप 'अपने संगठन' और समाज की मदद से एक महत्वपूर्ण पद हासिल कर लेते हैं और समाज के मुखिया बन जातें हैं.

समाज की उम्मीदों और परिवर्तन के दारोमदार का ज़िम्मा लिए आप समाज को सपने दिखाते हैं लेकिन जल्द ही आप 'संगठन कलेश' में अपनी ज़िम्मेदारी भूल जातें हैं.
समाज आपका मुंह ताकता रहता है और आप 'संगठन परिवर्तन' में लगे रहेतें हैं.
समाज आँखों में आस लिए आपको तलाशता है और आप 'अपनी उम्मीदें' पूरी करने में लगे रहतें हैं. समाज हाथ पसारे प्रगति की मांग करता है और आप 'संगठन प्रगति' में लगे रहतें हैं.
आप समाज को, परिवर्तन, प्रगति, विकास और उम्मीदों का झुनझुना पकड़ा कर अपने ही संगठन के 'चूल्हे-चोके' से बाहर नहीं निकल पा रहे तो फिर किस बात का परिवर्तन, किस तरह की प्रगति और कौन सा विकास ? कर तो आप वही रहें है जिसके लिए आपने आवाज़ उठाई और बाकियों पर दोषारोपण किए.

केजरीवाल अच्छे प्रशासक हैं लेकिन अच्छा संगठन नेत्रत्व नहीं कर सकते. वे क्यों नही मान लेते कि एक साथ दो जगह पर होना उनके लिए ही नही वरन संगठन के लिए भी पतन का कारण हो सकता है. चापलूसों और चापलूसी से बचने के लिए ही केजरीवाल ने अलग पार्टी बनाई लेकिन अब जो उनकी पार्टी में हो रहा है वो 'चापलूसी' ही है. आपके साथ के लोग आपसे सवाल-जवाब न करें तो चापलूसी ही शेष रह जाएगी और फिर यही सब तो आप को पसंद नहीं था यही तो दोष था 'बाकियों' का.

मतलब ये की जिस तरह की राजनीती और कार्यव्यवस्था से तंग आ कर जनता ने आप को समर्थन दिया अब वही सब केजरीवाल कर रहें हैं. घर का मुखिया भी निर्णय लेने के लिए सबकी राय लेता है और जो सबके हित में हो वही निर्णय सुनाता है. पर केजरीवाल को क्या हुआ जी. ये क्या चाहते हैं ? चापलूसों की भीड़ ....जो हां में हां मिलातें रहें. फिर चाहे चापलूसी में कुमार विश्वास को मुख्यमंत्री बना दिया जाए.

जागो मोहन प्यारे...होश में आओ. तुम्हें दिल्ली की सत्ता बड़ी मुश्किल से मिली है इसे सांप-सीड़ी का गेम मत बनाओ. दूसरों के अंजाम को देख के सबक लो. लोगों को दिखाए सपने पूरे करो. ये चूल्हा-चोका छोड़ो. पांच साल केजरीवाल सुनने में अच्छा लगता है. गर ये हकीकत में चाहते हो तो काम करो.

*कमियां सभी में होतीं हैं जरुरी है उन्हें जान कर सुधारना न की कमियां गिनाने वालों को सुधारना.

Sunday, March 1, 2015

हम से ज़माना...ज़माने से हम नहीं...

बलात्कार, छेड़खानी, छू भर लेने की तमन्ना, पीछा करना, फ़ोन पर अश्लील मैसेज करना/कॉल करना, तेजाब फेंकना यानी किसी भी रूप में महिलाओं/लड़कियों को तंग करने के बाद यदि कोई मर्द नुमा व्यक्ति ये समझे कि 'अब वो लड़की चुप रह कर सब भूल जाएगी या अपनी इज्ज़त और बदनामी की दुहाई दे कर समाज से खुद को अलग कर लेगी' तो ये उस मर्द नुमा व्यक्ति की सड़ेली सोच है...

किसी भी प्रकार के शारीरिक, मानसिक रूप से उत्पीड़ित महिला/लड़की अपनी आप बीती के बाद यदि यह सोचे कि उसका जीवन बर्बाद हो गया, कोई उसे अपनाएगा नहीं, वो किसी को मुंह दिखाने के काबिल नही रही, उससे अपराध हो गया है, उसे परिवार और समाज ताने देगा, उसे पल पल ये एहसास दिलाया जायेगा की वो अपवित्र है, वो बेचारी है और इसलिए उसे अपनी आप बीती को निगल जाना चाहिये, घर में बंद हो जाना चाहिये, समाज से अलग हो जाना चाहिये और इन सब परिस्थति से बचने के लिए उसे आत्महत्या कर लेनी चाहिये....तो ये सिर्फ और सिर्फ उस महिला/लड़की की गलतफहमी है.....कई ऐसे उदहारण मौजूद है जिनमें पीड़ित महिलाओं ने साहस दिखाया और अपने इरादों को मजबूत कर आज बेहतर जीवन जी रही हैं.

आपका मान-सम्मान आपसे कोई भी नही छीन सकता...न कोई मर्द, न मर्दों का झुंड ..और न मर्दों का ये समाज.. मान-सम्मान ये शरीर नहीं आपके इरादें हैं जिन्हें कोई नहीं छीन सकता, कोई नहीं तोड़ सकता. ''अगर सुअर छू ले तो नहाना पड़ता है'' ये इसी समाज से सुना...जिसका मतलब देर से समझ आया की गन्दगी यदि तन से छु जाए तो उसे साफ़ पानी से धो लो....और फिर पहले जैसे हो जाओ. एक सुअर के छू देने से कोई भी अपवित्र नहीं होता, किसी का मान नहीं जाता, किसी की ज़िन्दगी बर्बाद नहीं होती, किसी को ताने नहीं सुनने पड़ते, कोई बेचारा नहीं हो जाता और न ही कोई बेबस हो कर आत्महत्या करता है.
आपका मन, आपकी सोच, आपके सपने और आपके होंसले जब तक बुलंद है, जिन्दा हैं तब तक कोई भी...कोई भी आपके मान- सम्मान, आपकी इज्ज़त का बाल भी बांका नहीं कर सकता...किसी अंग के भंग हो जाने से आपकी ज़िन्दगी खत्म नहीं हो सकती...ज़िन्दगी सिर्फ शरीर नही. ये उस सुअर का दोष है. उसकी प्रवत्ति का, उसके पालन-पोषण का दोष है.

मेरी छुपी, अंधेरों में दुबकी, चुप्पी ओढ़ी, जीवन को कोसती, तानों को सहती, आत्महत्या का विचार लिए जीती सहेलियों ...सुनों ..आपको तब तक कोई नहीं गिरा सकता जब तक आप अपनी नजरों में न गिर जाएं. अपने लिए लड़ों, जियो और इन सूअरों को समाज से निकाल फेंकने का प्रयास करो.

Monday, February 16, 2015

‪गोडसे के बन्दर‬

देश में हो रही कर्मान्तरण की क्रांति के चलते गाँधी के तीन बन्दर भी उकता गये और वर्तमान की हवा में ये भी वीयर्ड हो गये. अब ये गाँधी के नही रहे. ये पाला बदल गोडसे के हो गये.....
बुरा न देखो-- ये अब बुरा देखता भी है और दिखाता भी है जो न देखे उसे व्हाट्सएप करता है..ट्वीटरीयाता है...फेसबुक पर अपलोड करता है...शेयर करता है और मेल भेजता है..

बुरा न सुनो--ये बुरा सुनते, सुनाते है वो भी ज़बरन ...इन्होंने रेडियों पकड़ा है जहां ''बन्दर की बात'' करते है ये ...अपनी बुक निकाला डाली ''मैं बन्दर बोल रहा हूँ'' इसके बाद भी चैन नही पड़ा तो voice call करवा रहें हैं मोबाइल पर...

बुरा न बोलो--ये तो गजब हो गये..बन्दर से हो गये 'साक्षी बन्दर' और लगे है बुरा बोलने में, बुलवाने में और तो और लोगों को प्रोत्साहित करते है की वो भी बुरा बोलें....इसके लिए बाकायदा क्लासिस चलायी जाती हैं जिसे बंघी क्लासिस कहते हैं.
इसलिए इन्होने गाँधी को त्याग कर गोडसे का दामन थामा है...क्यूंकि इसमें फल है. इससे यह राष्ट्रवादी कहलायेंगे, इनकी मूर्तियाँ चौराहों पर लग सकती हैं, स्कूल में बच्चों की किताबों में इनके योगदान को शिक्षा के रूप में शामिल किया जा सकता है, इनके मंदिर बनाये जा सकते हैं...मलतब खूब स्कोप है इनके फल खा के फूलने का. तो भाईलोगों एडवांस होते इस युग में जब इन्हें 'विचार वापसी' का स्कोप नही दिख रहा तब तक अपना भला इन्हें कर्मान्तरण में ही दिखा और चल पड़े गोडसे की ओर..... देखते हैं ये गोडसे के तीन बन्दर क्या गुल खिलाते हैं.

Thursday, February 12, 2015

नमो ...नमो..

36 करोड़ देवी देवता लोग नाराज़ बैठे हैं. उनकी बिरादरी में एक नया अवतार शामिल होने वाला है. 15 फरवरी को ये अवतार साक्षात प्रकट हो कर स्वयं, खुद, अपने ही कर-कमलों से अपनी मूर्ति का उद्घाटन करेंगे ऐसा आकाशवाणी के सूत्रों से ज्ञात हुआ है. इसके बाद समस्त जम्बूदीप के विराट हिन्दू अपने सरकारी पदों से त्यागपत्र दे कर परम् पिता विष्णु के अवतार शिरोमणि नमो नमो के मंदिर में पुजारीगिरी करेंगे. जिसके लिए जम्बूदीप सरकार द्वारा उन्हें विशेष दिव्य पैकज उपलब्ध कराया जायेगा.

परम शिरोमणि नमो नमो श्रीमान दामोदर दास नरेन्द्र मोदी जी ने एक चाय वाले के रूप में जम्बूदीप में जन्म लिया. ये बचपन से ही जोरदार चाय बनाते थे जिसके चलते आज अमेरिका तक उनके हल्ले हैं. बचपन से ही इनके आस पास नमो नमो का उच्चारण बैकग्राउंड म्यूजिक की तरह इनको बेहतर चाय बनाने और इनको विराट हिन्दू बनने में इनका सहायक बनता गया जिसे इन्होने अब अपने जीवन में आत्मसात कर अपनी प्राइवेट टोन बना लिया है.

36 करोड़ देवी देवताओं की एक प्राइवेट कॉकटेल पार्टी में इस चिंता को डीजे पर डिस्कस किया गया. देवताओं का कहना है कि नमो के आने के बाद शायद अब उन्हें और बच्चे पैदा करने पड़ेंगे. वरना नमो का प्रताप उन्हें धर्मान्तरण करने पर मजबूर कर सकता है और शायद जिसके बाद घर वापसी की उम्मीद भी न रह जाए. इसी बीच देवियों ने अपने अपने पल्लुओं को समेट लिया और ये निर्णय लिया है की अब वह पृथ्वी भ्रमण पर जाते हुए दुशाला ओढ़ कर जाया करेंगी. सभी देवी देवताओं की चिंता को बढ़ते देख नमो के भक्त लालों में हर्ष की लहर दौड़ गयी है.

नमो के प्रथम जागरण पर स्वयं नमो के परम सखा डार्लिग बराक के आने का अनुमान लगाया जा रहा है परन्तु यह भी हवा है की नमो की समस्त ओर्किसटा पार्टी डार्लिग बराक के पिछले जागरण में छुप के लड्डू खाए जाने पर उनसे नाराज़ है. नमो के भक्त लालों का जोश से होश खराब है और सभी अभी ताज़ा निपटाए केजरी भंडारे से त्रस्त मौन व्रत लिए जहां तहां पड़े हैं.

आगे की जानकारी आप सभी को मिलेगी...जब मन करेगा तब..
नमो को अपनी कॉलर टोन बनाने के लिए अपना दुर्वाहक यंत्र...दीवार में दे मारें...टोन तुरंत बज उठेगी....

**3 करोड़ सोनिया गाँधी के आने से बढ़ गए.

Monday, February 9, 2015

आओ मर्दों चलो कैंडल मार्च निकालें…..

चलो आओ मर्दों...
अपने दोस्तों को इकठ्ठा कर लो
वो जो दिन भर लड़कियों के कॉलेज के बाहर मुंह फाड़ कर,
ललचाई नजरों से छोटी बच्चियों तक को निहारता है उसको और
उसके पूरे ग्रुप को बुला लो
तुम्हारे पड़ोस के वो दो लड़के जिन्होंने अपनी
काम वाली बाई के साथ ज़बरदस्ती की थी उनको भी आने को बोल देना
नुक्कड़ पर खड़े उन लड़कों को भी बोलना
जो दिन भर मोहल्ले भर की हर आने-जाने वाली लड़की के शरीर को नापते रहतें हैं
हर शाम पार्क में बैठे उन अधेड़ों को भी बुलाना जो
पार्क में मौजूद हर महिला का ऊपर से नीचे तक
अपनी फूटी चार आँखों से एक्सरे लेते है
फेसबुक के भी उन अंकल लोगों को बुला लेना जो
बेटी बेटी से शुरू हो कर बेटी के साइज़ तक पहुँच जाते है
उनको भी न भूलना जो जॉब देने के लालच से महिलाओं को अपने
घर/ऑफिस बुला कर उन्हें छूने की कोशिश करते हैं
अपने ऑफिस के उन तमाम मर्दों को भी बुलाना जो
साथी महिला कर्मचारियों को दिन-रात सोच सोच अपनी कुंठाएं निचोड़ते रहते हैं
उस भाई को भी बुलाना जिसने अपनी चचेरी बहन
के सीने को 'धोखे से' दबा दिया था
उस बाप को भी बुलाना जो अपनी बेटी को सबके सोने के बाद रुलाता है
उस दादा, ताऊ, चाचा और मामा को भी बुलाना जिसने
अपनी बेटी जैसी रिश्तेदार को जीते जी मार दिया और हो सके तो
अपने उस दोस्त को भी बुलावा भेजना जिसने
अपनी बीवी को नोंच कर तुम सब के सामने परोस दिया था

देखो चौराहे पर
एक और निर्भया पड़ी है
उसके लिए न्याय मांगना है
आओ कैंडल मार्च करें, नारे लगायें
किसी और निर्भया के साथ ऐसा न हो
आओ इंसाफ मांगें

हम लड़कियों की तो
आवाज़ ही नहीं है ना इसलिए तो
तुम्हे बुलाया है आओ साथ दो हमारा...पर
आना तो सोच बदल के आना
हाँ बस अभी के लिए ही ....आ सकोगे ना??
हाँ आसान ही होगा तुम सब के लिए...यही तो असल में तुम हो न?

तो आओ पहनो अपने नकाब और
लगाओ नारे ...इंसाफ मांगो ...
मांगो रहम की भीख
मांगो हमारे लिए जीने का हक़
मांगो हमारे लिए सुरक्षा
मांगो हमारे लिए ज़िन्दगी

आओ मर्दों चलो कैंडल मार्च निकाले

Sunday, February 8, 2015

दोष हमारा है.

हरियाणा में कुछ ही दिनों पहले माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने बड़े जोर शोर के साथ बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान की शुरुआत की थी जिसके बाद उन्होंने इसी को चुनावी मुद्दा बना पूरी दिल्ली में महिला सुरक्षा के लिए अपने कार्यों को गिनाया. वही इसी महिला सुरक्षा के चलते और बेटी बचाओ अभियान के बाद भी एक मंदबुद्धि नेपाली मूल की युवती से रोहतक (हरियाणा) में दिल्ली गैंगरेप जैसी दरिंदगी की जाती है और बलात्कार/हत्या के बाद लड़की के शरीर में नुकीले पत्थर डाल दिए जाते हैं.

ये इतना भयानक और अंतर आत्मा को हिला देने वाली घटना है की पोस्टमार्टम कर रहे डॉक्टर्स की हिम्मत नही हो रही थी कि वो इस पोस्टमार्टम को पूरा कर सकें. पोस्टमार्टम करने के बाद लड़की के शरीर से 15.5 सेमी लंबा, 3.8 सेमी चौड़ा एस्बेस्टस शीट का पत्थर निकला. जो बच्चादानी को फाड़ आंतों में फंस गया और जिससे बड़ी आंत भी फटी गई जिसके बाद लड़की की मुत्यु हो गई...

ये लड़की 1 फरवरी को शहर से लापता हो गई जिसकी शिकायत दर्ज कराने के बाद भी लड़की को ढूंढने की सुस्त कार्रवाई करने वाली पुलिस अब इतने बड़े घटनाक्रम के बाद होश में आई है.

ये तो साफ़ हो गया है की इस समाज में लड़कियों/महिलाओं के लिए कोई सुरक्षा का माहोल, कोई व्यवस्था ही नही है...फिर चाहे कोई कितने भी नारे लाग ले...अभियान चला ले या ढिंढोरा पिट ले...बेखौंफ घूमते अपराधियों का समाज है ये...उन्ही की सत्ता है उन्ही का कानून....
इसलिए इसके दोषी न तो ये कानून वाले है....न हमारा समाज....न ही सरकार....न ही ये लड़के...

दोष है तो सिर्फ लड़की का....है न ????

Friday, February 6, 2015

क्यों हमें शर्म नही आती?

लड़कों के गैंग ने एक लड़की/बच्ची के साथ गैंग रेप किया और उसका विडियो बना कर मैसेजिंग सर्विस व्हाट्सएप पर डाल कर उसका प्रचार कर रहें हैं. और ये एक नहीं बल्कि 2 विडिओ है .....जिसमें से एक में 5 लडके दिख रहें है जो 8 मिनट का है और दुसरे विडिओ में 2 लड़के हैं जो 2 मिनट का है ....

ताज्जुब है की ये विडियो लगातार सर्कुलेट किया जा रहा है और अभी से नही तक़रीबन पिछले 6 माह से. लोगों ने विडियो को देखा और सर्कुलेट किया जैसे ये मजाक की बात हो, मजे लेने की, कोई जोक, कोई नाटक/अभिनय या कोई मस्त माहोल बना देने वाला वाकया. विडियो देख के कोई भी सन्न रह जाए... इस विडियो में लड़की/बच्ची खुद को छोड़ने की अपील कर रही है....मुझे छोड़ दो इसके बाद मेरे पास मारने के अलावा और कोई रास्ता नही बचेगा, भाई आपकी भी तो माँ बहन होंगी.....लेकिन सभी लड़के इस पर हंसते हुए नजर आ रहे हैं. ये लड़के बिना किसी डर के इस घटना को अंजाम देते हुए दिखाई देते हैं, सभी हंस रहे हैं...वार्तालाप कर रहे हैं...और विडिओ बना रहे हैं.

इस सर्कुलेट होते वीडियो के जरिए ये गैंग रेप एक बार नहीं, दो बार नही बल्कि पिछले 6 महीने से लगातार होता आ रहा है...जिसे कई लोग देख रहे हैं...शायद मजे ले रहे हैं और फिर दूसरों को फॉरवर्ड कर यही अनुभव उन्हें भी करा रहे हैं.

यही समाज है हमारा....गलत देखो, सुनो, बोलो पर उसके खिलाफ़ आवाज़ मत उठाओ... उसके साक्षी बनो पर उसके विरोध में सामने मत आओ. लगातार पिछले 6 महीनों से ये विडिओ देखा और फॉरवर्ड किया जा रहा है लेकिन उसके खिलाफ़ कोई नही बोला....बोली तो एक महिला क्यूँ....क्यूंकि उसे पता है बलात्कार का मतलब क्या होता है... तो क्या बाकी किसी को नही पता..... बलात्कार क्या है? क्या मतलब है इसका ?

इस विडियो को देखने के बाद मैं बहुत विचलित हो गयी हूँ....सीने में कुछ अटक गया है जैसे....
उफ़ ये है हमारा प्रगतिशील समाज और इसके लोग...आज सबको फ़ोन चाहिये वो भी स्मार्ट फ़ोन...फेसबुक, जीमेल, व्हाट्सएप, ट्वीटर के साथ...क्यूँ ? क्यूंकि सबको समय के साथ कदम मिला के चलना है....अपडेट रहना है....अपनी योग्यता को इसी तरह से दर्शाना है और सबसे ज्यादा यही तो हमें पढ़ा लिखा स्मार्ट दर्शाता है...... अच्छा ? तो फिर जब ऐसे अपराध होते हैं तब ये सारी दलीलें कहां चली जाती हैं ? ऐसे विडियो देख कर ही अपडेट हो रहे हो? ऐसे समय में साथ कहां चल रहे हो और किस के साथ चल रहे हो ? क्या अपराधियों के साथ? क्या दर्शाना है की तुम सिर्फ मजे लेते हो ये सब देख कर? बस यही है सबकी स्मार्टनेस ?

और यहाँ कई हैं जो बेटी बचाओ..बेटी बचाओ चिल्लाते रहें हैं..अब तो जवाब दे दो भाई ...किसकी बेटी बचा रहे हो, कौनसी बेटी, कहाँ की बेटी ????

शर्म आनी चाहिये हमें.....

Thursday, February 5, 2015

शाहिद...

रात भर टिमटिमाती अपनी आँखों को और ज्यादा तकलीफ न देते हुए...हार कर 4 बजे(सुबह के) सोचा की चलो बहुत हुआ...अँधेरे कमरे में परेशानियों को एक खूंटी से दूसरी खूंटी पे टांगना, 4 से 6 बार कमरा नापना, दिन भर की कड़ियों को 'ओके ओके' कर आपस में चिपकाना, पूरे पारले जी बिस्किट का पैकेट खा जाना और कुछ बातें सोच सोच कर दिल जलाना... हटो छोड़ो ये सब....चलो कोई मूवी देखी जाए......
तुरंत लेपटोप ऑन किया और ऑनलाइन मूवीज में ''शाहिद'' तलाशी.... इस फ़िल्म को मैं फस्ट डे फस्ट शो देखना चाहती थी पर....टलते टलते 2015 आ गया...

2013 में रिलीज़ शाहिद बहुत कम दिनों के लिए सिनेमाघरों में रही क्यूंकि इसे उतने दर्शक नहीं मिल पाए जितने असल में मिलने चाहिये थे लेकिन ये फ़िल्म सराही गई. अनुराग कश्यप निर्मित एवं हंसल मेहता निर्देशित ‘शाहिद आज़मी की जीवनी’ पर आधारित फ़िल्म है ‘’शाहिद’’........
शाहिद आज़मी एक वकील और मानवाधिकार कार्यकर्त्ता थे जिनकी 2010 में मुम्बई में कट्टरपंथियों द्वारा हत्या कर दी गई थी...
फ़िल्म में दिखाया गया है कि कैसे एक बेकसूर शाहिद को 1992 के हुए बम धमाकों में शामिल होने के शक पर उसे जेल में डाल दिया जाता है जहाँ उसे दिल देहला देने वाली यातनाएं दी जाती हैं. जेल में रहते हुए उसकी मुलाकात अपने जैसे ही निर्दोष वॉर साब से होती है. जिसके बाद शाहिद को महसूस होता है की वो अकेला बेगुनाह नहीं है जो शक की बिनाह पर यातनाएं झेल रहा है बल्कि उसके जैसे सैंकड़ों हैं. जेल में रह कर शाहिद कानून की पढ़ाई पूरी करता है और बाहर निकल कानून की डिग्री ले कर वकालत शुरू करता है. शाहिद का मकसद उन बेगुनाहों को जेल से बाहर निकालना था, जिन्हें पुलिस ने सिर्फ शक के आधार पर बंद कर रखा था और जिनके पास क़ानूनी लड़ाई के लिए पैसा नहीं था.....लेकिन धार्मिक कट्टरपंथियों को 'शाहिद' के तौर तरीके रास नहीं आते. उसे धमकियां मिलती हैं कि वो अपनी 'हरकतों' से बाज़ आए लेकिन शाहिद किसी की परवाह नही करता और फिर एक दिन कुछ लोग उसके ऑफिस में ही आ कर उसकी हत्या कर देते हैं.
फ़िल्म में दिखाया है की किस कदर कानून की कार्यवाही को पूरा करने के लिए किसी भी गरीब और असहाय को मुजरिम करार दे कर सालों तक जेल में टॉर्चर किया जाता है. जिसके पास पैसे नही, साधन नही, वकील नही मतलब वो मुजरिम और जिसके पास पैसा वो मुजरिम होते हुए भी शरीफ.
फ़िल्म के एक सीन में ये भी दिखाया गया है की कैसे साथी वकील शाहिद को केस की बहस के दौरान उसके अतीत को लेकर टीस करती है. शाहिद की घुटन और उसका खुद को साबित न कर पाने की छटपटाहट आपको बैचन कर देगी. ये होता ही है किसी को हराने के लिए कोशिश की जाती है की सामने वाले को भावनात्मक चोट दी जाये जिससे वो तड़प उठे और मैदान छोड़ दे.
भारत में इस तरह के तमाम मामले भरे पड़े हैं. देश की जेलों में न जाने कितने बेगुनाह अपनी मज़बूरी की सज़ा काट रहें हैं जिनमें से कई तो इंसाफ के इंतज़ार में जेल में ही मर जाते हैं और कई अपने बचपन से बुढ़ापे तक का सफर रिहाई की उम्मीद में बिता देते हैं जिसके बाद उन्हें मिलता है कोर्ट की तरफ से माफीनामा....परिवार के सालों के इंतज़ार को मिलता है माफीनामा....समाज से लुप्त हो चुकी उनकी पहचान के बदले में मिलता है माफीनामा....ज़िन्दगी से गुज़र चुके त्यौहारों, खुशियों और सपनों के बदले मिलता है माफीनामा.....दफन हो चुकी इच्छाओं और मर चुकी जीने की ललक को मिलता है तो सिर्फ माफीनामा.....
और इस माफीनामे का मोल क्या है ....क्या है ?? शायद अफ़सोस....

Thursday, January 15, 2015

दिल्ली लाइफ-9

अपने आस-पास और हर गली, हर मोहल्ले, हर सड़क पर लोगों को झुकते, हाथ जोड़ते, कान पकड़ते, तुनतुना बजाते और बुदबुदाते खूब देखा है और देख भी रही हूँ. जहाँ रहती हूँ वहां का तो ये हाल है कि सुबह 4 बजे से घंटे बजना शुरू हो जाते हैं और एक पगड़ी लगाया हुआ अजूबा सा दिखने वाला व्यक्ति जो खुद को मंदिर का पुजारी बताता है वो माइक ले के प्रवचन देता है. यहाँ तमाम औरतें कतार में खड़ी हो कर जय जय करती नजर आती हैं और फिर पुजारी के पाँव छु कर ''सुन तू मेरी मैं कहूँ बहुतेरी'' करती अपने अपने घर बढ़ जातीं हैं.

जिस घर में रहती हूँ उस घर में शाम 7 बजे से जय श्री कृष्णा , महाभारत , रामायण , जय जय संतोषी माँ, जय माँ विंध्यांचल वाली, महादेव रात के 12 बजे तक अपने दर्शन देने एक के बाद कर के आते रहतें हैं और आंटी फुल वॉल्यूम में खुद तो तृप्त होती होंगी पर मुझे पकातीं हैं....अक्सर तो मुझे उनके डायलॉग सुन बहुत हँसी आती हैं और सबसे ज्यादा मज़ेदार होता है उनका बैकग्राउंड म्यूजिक बाप रे .
एक बार गलती से मैंने आंटी को छेड़ दिया कि वो क्यूँ इतना धार्मिक है. उसके जवाब में आंटी ने मुझे घंटा भर से ज्यादा खड़ा रखा. भरी ठंडी में ये मेरा खुद पर किया गया सबसे दुखद अत्याचार रहा और जो इतना बड़ा ठंडा लेक्चर उन्होंने दिया उसका इन शॉट ''जीवन का सार ईश्वर भक्ति में हैं जो इससे दूर रहता है वो भटकता है'' मैंने सर पिट लिया काहे खुद को भटकाया चुप से रजाई में नहीं बैठा जाता.

आगरा में एक सड़क के मोड़ पर बाटा वाले का शो रूम हुआ करता था. पिछली बारी जब घर गयी थी तब उस मोड़ पर शनि महाराज बैठे दिखे और भगतों की लाइन नजर आई. भाई बोले शनि देव ने खूब जूते पहने अब लोगों को पहनाने के लिए मंदिर बनवा लिया है. हालाकि ये मजाक था लेकिन लोग भी न जगह हथियाने के लिए क्या क्या हथकंडे अपनाते हैं. वो क्या पैदा करता होगा ये चंद दिनों में भगवान पैदा कर लेते हैं.

इन सब से अलग, अब सबसे ज्यादा दुखी हूँ मैं फेसबुक के मंदिरों से. ऐसे ऐसे पुजारी है यहाँ की क्या कहा जाए. कवर पर भगवान, प्रोफाइल पिक पर भगवान, दिनों रात आरती, थाली, भजन-कीर्तन चलते रहते हैं. इतने भगवान हैं यहाँ कि गिनती कम पड़ जाये. ऐसे पुजारियों को अपने प्रोफाइल की सीढियाँ चढने से पहले ही उनको उलटे पांव भगा देती हूँ.
मुझे इन सब से चिढ़ है. भक्ति अच्छी बात है पर अंधभक्ति से मुझे चिढ़ हैं और आज कल जो नए भगवान बने है उनको फॉलो करने वाले भी इस बात का ख्याल रखें कि मुझे मोदीयापा पसंद नहीं. न उसके नाम पर बकवास करने वाले. मोदी के अंध भगतों दूर ही रहो.