छह साल पहले जब मैं दिल्ली पहली बार आई थी, तब यह शहर मुझे नया-नया और कई मामलों में अलग और अद्भुत लगा। अक्सर मैं एकटक यहां की ऊंची खूबसूरत इमारतों और बसों में चलते हुए सड़कों को निहारा करती थी। लेकिन पिछले एक साल से यह दिल्ली मुझे बेहद साधारण लगने लगी है बल्कि कई बातों में बहुत ही गया-गुजरा शहर भी। कई बार ऐसा लगता है कि इतने सालों बाद ऊपरी चमक-दमक के अलावा दिल्ली का क्या बदला है! सड़कों, मेट्रो और कई दूसरी सुविधाओं के बावजूद मैं खोजने लगती हूं कि इतने सालों में मेरे आसपास क्या कुछ बदला है! तब फुटपाथों पर लाचारी में महज थकान उतारने की नींद में खोए लोग दिखते थे। आज भी रात में सड़कों से गुजर जाइए, अगल-बगल के फुटपाथों पर यही आलम दिख जाएगा।
तब बहुत सारे बच्चों को रोटी के लिए बिलखता देखा था मैंने, उन दृश्यों में क्या बदलाव आया है! उस दौरान शहर के शोर में मदद के लिए उठती आवाजें आमतौर पर घुट कर रह जाती थीं, आज हालात बहुत बदले नहीं हैं। बल्कि पहले के मुकाबले संवेदना की तलाश थोड़ी ज्यादा मुश्किल हो गई है। चौक-चौराहों पर भीख मांगते छोटे बच्चे कुछ नहीं मिलने पर कुछ मिल जाने की भूख में कई बार गाड़ियां साफ करते नजर आ जाते हैं।
दूर से यह दिल्ली अच्छी लगती है। लेकिन पता नहीं क्यों, पास से यही दिल्ली मुझे कई बार डरा देती है। यहां के अभिजात वर्गों की सुविधाएं और दूसरी ओर गरीब और भूखे लोगों को देख लगता है कि किन पैमानों पर हमारे यहां विकास की नीतियां बनती हैं। एक देश की दो शक्लें हैं। अब तक किसी को हिचक भी नहीं होती एक को ‘भारत’ और दूसरे को ‘इंडिया’ कहने में।
‘इंडिया’ विकसित देश है और भारत विकासशील। एक ‘देश’ में लोग वातानुकूलित कारों में घूमते हैं। उनके दफ्तर, घर, खरीदारी के लिए दुकानें या मॉल, सब कुछ वातानुकूलित हैं। इसलिए वे जिस ‘देश’ में सांस ले रहे हैं, वह यकीनन ‘विकसित’ है। दूसरी ओर, ‘भारत’ में लोगों के पास मरने के तमाम इंतजाम हैं, लेकिन जीने के लिए बमुश्किल एक भी नहीं। इस भयंकर गरमी और लू से अधिकतर गरीबों की जान आफत में है।
कड़ाके की सर्दियों में और बाढ़ में भी गरीब लोगों की ही जान जाती है। इस साल सख्त गरमी और लू से देश भर में तकरीबन दो हजार लोगों की जान जाने की खबरें आर्इं। लेकिन सरकार और मीडिया की नजर में यह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है। इसलिए किसी की मौत पर उसके परिवार को राहत या मुआवजा नहीं। जब भी कोई प्राकृतिक आपदा आती है तो अधिकतर मजदूर, किसान और गरीब लोग ही उसकी चपेट में आते हैं।
रोज घर से निकल कर दफ्तर जाने तक का समय मेरे लिए असहनीय होता है। वातानुकूलित बस में बैठने से पहले और उससे निकलने के कुछ ही पलों बाद हाल बेहाल हो जाता है। कभी-कभी मन होता ही नहीं कि घर से निकला भी जाए। लेकिन इन्हीं आग बरसाते दिनों में सड़कों पर हजारों लोग दिहाड़ी कमाने में लगे रहते हैं।
फ्लाइओवरों और पुलों के नीचे धूप की तपिश से बचते हुए, बस अड्डों या पेड़ों के नीचे सांस लेते हुए लोग दिखते हैं। दिल्ली से बाहर खेतों में किसान काम करते नजर आए जाएंगे। लेकिन इन सबका ‘इंडिया’ से क्या वास्ता! विदेशी मीडिया हमें यह बता रहा है कि आने वाले समय में भारत में भयंकर सूखा पड़ सकता है। लेकिन देश का मीडिया और यहां की सरकार इन सबसे बेखबर अपनी वाहवाही में लगी हुई है। देश के नेता विदेश दौरों में लगे हुए हैं और सब तरफ सिर्फ ‘अच्छे दिनों’ का शोर परोसा जा रहा है।
हाल ही प्रकाशित एक रिपोर्ट में भारत में भूखे लोगों की संख्या विश्व में सबसे ज्यादा बताई गई। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक भारत में उन्नीस करोड़ चालीस लाख भूखे लोग हैं। देश की आबादी का पांचवां हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे रहता है। हाशिये पर रहने वाले लोग हर आपदा में मरते हैं। लेकिन आजादी के अड़सठ साल बाद भी इस पर सरकार का ध्यान नहीं है।
नब्बे के दशक में शुरू हुए आर्थिक सुधार की नीतियों के बाद हाशिये पर रहने वाले लोग और भी बदतर हालत में जा चुके हैं। दूसरी ओर, देश के अभिजात तबकों और विदेश में रहने वाले प्रवासी भारतीयों के लिए लाभ के नए दरवाजे रोज खुल रहे हैं। प्रधानमंत्री आए दिन सवा सौ करोड़ नागरिकों के विकास की बात करते हैं। लेकिन उनके इस नारे में हाशिये के बाहर जी रहा समाज कहां है!
#प्रियंका....
तब बहुत सारे बच्चों को रोटी के लिए बिलखता देखा था मैंने, उन दृश्यों में क्या बदलाव आया है! उस दौरान शहर के शोर में मदद के लिए उठती आवाजें आमतौर पर घुट कर रह जाती थीं, आज हालात बहुत बदले नहीं हैं। बल्कि पहले के मुकाबले संवेदना की तलाश थोड़ी ज्यादा मुश्किल हो गई है। चौक-चौराहों पर भीख मांगते छोटे बच्चे कुछ नहीं मिलने पर कुछ मिल जाने की भूख में कई बार गाड़ियां साफ करते नजर आ जाते हैं।
दूर से यह दिल्ली अच्छी लगती है। लेकिन पता नहीं क्यों, पास से यही दिल्ली मुझे कई बार डरा देती है। यहां के अभिजात वर्गों की सुविधाएं और दूसरी ओर गरीब और भूखे लोगों को देख लगता है कि किन पैमानों पर हमारे यहां विकास की नीतियां बनती हैं। एक देश की दो शक्लें हैं। अब तक किसी को हिचक भी नहीं होती एक को ‘भारत’ और दूसरे को ‘इंडिया’ कहने में।
‘इंडिया’ विकसित देश है और भारत विकासशील। एक ‘देश’ में लोग वातानुकूलित कारों में घूमते हैं। उनके दफ्तर, घर, खरीदारी के लिए दुकानें या मॉल, सब कुछ वातानुकूलित हैं। इसलिए वे जिस ‘देश’ में सांस ले रहे हैं, वह यकीनन ‘विकसित’ है। दूसरी ओर, ‘भारत’ में लोगों के पास मरने के तमाम इंतजाम हैं, लेकिन जीने के लिए बमुश्किल एक भी नहीं। इस भयंकर गरमी और लू से अधिकतर गरीबों की जान आफत में है।
कड़ाके की सर्दियों में और बाढ़ में भी गरीब लोगों की ही जान जाती है। इस साल सख्त गरमी और लू से देश भर में तकरीबन दो हजार लोगों की जान जाने की खबरें आर्इं। लेकिन सरकार और मीडिया की नजर में यह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है। इसलिए किसी की मौत पर उसके परिवार को राहत या मुआवजा नहीं। जब भी कोई प्राकृतिक आपदा आती है तो अधिकतर मजदूर, किसान और गरीब लोग ही उसकी चपेट में आते हैं।
रोज घर से निकल कर दफ्तर जाने तक का समय मेरे लिए असहनीय होता है। वातानुकूलित बस में बैठने से पहले और उससे निकलने के कुछ ही पलों बाद हाल बेहाल हो जाता है। कभी-कभी मन होता ही नहीं कि घर से निकला भी जाए। लेकिन इन्हीं आग बरसाते दिनों में सड़कों पर हजारों लोग दिहाड़ी कमाने में लगे रहते हैं।
फ्लाइओवरों और पुलों के नीचे धूप की तपिश से बचते हुए, बस अड्डों या पेड़ों के नीचे सांस लेते हुए लोग दिखते हैं। दिल्ली से बाहर खेतों में किसान काम करते नजर आए जाएंगे। लेकिन इन सबका ‘इंडिया’ से क्या वास्ता! विदेशी मीडिया हमें यह बता रहा है कि आने वाले समय में भारत में भयंकर सूखा पड़ सकता है। लेकिन देश का मीडिया और यहां की सरकार इन सबसे बेखबर अपनी वाहवाही में लगी हुई है। देश के नेता विदेश दौरों में लगे हुए हैं और सब तरफ सिर्फ ‘अच्छे दिनों’ का शोर परोसा जा रहा है।
हाल ही प्रकाशित एक रिपोर्ट में भारत में भूखे लोगों की संख्या विश्व में सबसे ज्यादा बताई गई। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक भारत में उन्नीस करोड़ चालीस लाख भूखे लोग हैं। देश की आबादी का पांचवां हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे रहता है। हाशिये पर रहने वाले लोग हर आपदा में मरते हैं। लेकिन आजादी के अड़सठ साल बाद भी इस पर सरकार का ध्यान नहीं है।
नब्बे के दशक में शुरू हुए आर्थिक सुधार की नीतियों के बाद हाशिये पर रहने वाले लोग और भी बदतर हालत में जा चुके हैं। दूसरी ओर, देश के अभिजात तबकों और विदेश में रहने वाले प्रवासी भारतीयों के लिए लाभ के नए दरवाजे रोज खुल रहे हैं। प्रधानमंत्री आए दिन सवा सौ करोड़ नागरिकों के विकास की बात करते हैं। लेकिन उनके इस नारे में हाशिये के बाहर जी रहा समाज कहां है!
#प्रियंका....
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