Wednesday, June 24, 2015

किन्नरों के बारे में इस तरह भी सोचिए...

इलाहबाद स्टेशन आते ही ट्रेन के डिब्बे में अचानक शोर बढ़ गया. मैं नींद से जाग गयी. बर्थ से उतरने ही वाली थी कि सामने से किन्नरों की पूरी टोली आ गयी और अपने चिर-परिचित अंदाज में बख्शीस मांगने लगी.

मेरी बर्थ के आस-पास के लोग नाक-मुंह सिकोड़ते हुए उन्हें कुछ पैसे देते या मना कर देते. किन्नरों की टोली ऐसा व्यवहार देख तैश में आ जाती और जोर-जोर से चिल्लाते हुए, हाथों को पीटते हुए, उनसे अभद्र व्यवहार करनेवालों को गालियां देने लगी.
जब उनमें से कुछ किन्नर मेरे पास आये तो मैंने कहा- मैं आपको कुछ दे तो नहीं सकती, पर आइए मेरे साथ बैठ कर चाय पीजिए. मेरा इतना कहना था कि सभी किन्नर शांत हो गये. मैंने तुरंत चाय वाले को बुलाया और सभी किन्नरों को चाय पिलाने के लिए कहा.
चाय की चुस्कियों के बीच ही सभी ने अपना नकली नाम बताया और असली भी. मैंने जैसे ही चाय के पैसे देने के लिए हाथ बढ़ाया, उन किन्नरों में से एक ने मेरा हाथ पकड़ लिया और कहा-नहीं हम तुम्हें पैसे नहीं देने देंगे.

लोग हमसे दूर भागते हैं, हमें देखना पसंद नहीं करते, हमें काम पर रखना पसंद नहीं करते, हमें अपशगुनी कहते हैं, लेकिन तुमने हमें अपने साथ चाय पीने को कहा. हमें और कुछ नहीं चाहिए. यही अपनापन हम चाहते हैं, जो तुमने हमें दिया है. बहुत दे दिया तुमने. इतना कह कर किन्नरों की टोली चली गयी और मैं सोचती रह गयी कि यह है हमारा समाज और इसके लोग.

किन्नर समाज से बहिष्कृत हैं. उन्हें लोग अपने आस-पास नहीं देखना चाहते, उन्हें काम पर नहीं रखते, तो भला कैसे ये लोग अपनी जीविका चलायेंगे. मांगेंगे ही फिर. कोई नहीं देगा तो झगड़ा भी करेंगे. आखिर किन्नर भी हमारे समाज का हिस्सा हैं, वे भी इसी दुनिया के हैं, फिर क्यों इनसे इतनी नफरत? इनके किन्नर होने से, या इनके संपूर्ण स्त्री और संपूर्ण मर्द न होने से?

पिछले साल अदालत ने लंबे समय से किन्नर समाज की चली आ रही एक मांग को स्वीकार करके एक पहल की थी, जिसके बाद इस पहल को आगे ले जाने का जिम्मा समाज का है. दरअसल, अब हमें यह देखना है कि ऐसे कितने लोग हैं, जो किसी किन्नर को अपने घर बुला कर उसके साथ गपशप, चाय-नाश्ता, खाना-पीना करेंगे? कितने लोग ऐसे होंगे, जो अपने पारिवारिक अनुष्ठानों में, शुभकार्यो में किन्नरों को मेहमान की तरह आमंत्रित करेंगे?
जब तक सामाजिक सोच को नहीं बदला जायेगा, किन्नरों को इंसान नहीं समझा जायेगा. इसके लिए खुद किन्नर समाज को भी अपने चारों ओर बनी बंदिशों का रहस्यमयी घेरा तोड़ने की जरूरत है. महज नाच-गाकर धनार्जन करने के बजाय, समाज की मुख्यधारा में आने का प्रयास उन्हें भी करना होगा.

हाल ही में पश्चिम बंगाल सरकार ने मानवी बंद्योपाध्याय नामक किन्नर शिक्षाविद् को कृष्णानगर महिला महाविद्यालय की प्रधानाचार्या नियुक्त किया. इसे एक बड़ा कदम माना जा रहा है. यह देश में अपनी तरह का पहला मामला है. इस तरह की पहल ही समाज को बदलने में सहायक होंगी. जरूरत है तो बस थोड़ी-सी सामाजिक जागरूकता की, पहल की और इस बदलाव को अपनाने की.

‪#‎प्रियं


Friday, June 12, 2015

''रोशनी का अँधेरा''

छह साल पहले जब मैं दिल्ली पहली बार आई थी, तब यह शहर मुझे नया-नया और कई मामलों में अलग और अद्भुत लगा। अक्सर मैं एकटक यहां की ऊंची खूबसूरत इमारतों और बसों में चलते हुए सड़कों को निहारा करती थी। लेकिन पिछले एक साल से यह दिल्ली मुझे बेहद साधारण लगने लगी है बल्कि कई बातों में बहुत ही गया-गुजरा शहर भी। कई बार ऐसा लगता है कि इतने सालों बाद ऊपरी चमक-दमक के अलावा दिल्ली का क्या बदला है! सड़कों, मेट्रो और कई दूसरी सुविधाओं के बावजूद मैं खोजने लगती हूं कि इतने सालों में मेरे आसपास क्या कुछ बदला है! तब फुटपाथों पर लाचारी में महज थकान उतारने की नींद में खोए लोग दिखते थे। आज भी रात में सड़कों से गुजर जाइए, अगल-बगल के फुटपाथों पर यही आलम दिख जाएगा।

तब बहुत सारे बच्चों को रोटी के लिए बिलखता देखा था मैंने, उन दृश्यों में क्या बदलाव आया है! उस दौरान शहर के शोर में मदद के लिए उठती आवाजें आमतौर पर घुट कर रह जाती थीं, आज हालात बहुत बदले नहीं हैं। बल्कि पहले के मुकाबले संवेदना की तलाश थोड़ी ज्यादा मुश्किल हो गई है। चौक-चौराहों पर भीख मांगते छोटे बच्चे कुछ नहीं मिलने पर कुछ मिल जाने की भूख में कई बार गाड़ियां साफ करते नजर आ जाते हैं।

दूर से यह दिल्ली अच्छी लगती है। लेकिन पता नहीं क्यों, पास से यही दिल्ली मुझे कई बार डरा देती है। यहां के अभिजात वर्गों की सुविधाएं और दूसरी ओर गरीब और भूखे लोगों को देख लगता है कि किन पैमानों पर हमारे यहां विकास की नीतियां बनती हैं। एक देश की दो शक्लें हैं। अब तक किसी को हिचक भी नहीं होती एक को ‘भारत’ और दूसरे को ‘इंडिया’ कहने में।

‘इंडिया’ विकसित देश है और भारत विकासशील। एक ‘देश’ में लोग वातानुकूलित कारों में घूमते हैं। उनके दफ्तर, घर, खरीदारी के लिए दुकानें या मॉल, सब कुछ वातानुकूलित हैं। इसलिए वे जिस ‘देश’ में सांस ले रहे हैं, वह यकीनन ‘विकसित’ है। दूसरी ओर, ‘भारत’ में लोगों के पास मरने के तमाम इंतजाम हैं, लेकिन जीने के लिए बमुश्किल एक भी नहीं। इस भयंकर गरमी और लू से अधिकतर गरीबों की जान आफत में है।

कड़ाके की सर्दियों में और बाढ़ में भी गरीब लोगों की ही जान जाती है। इस साल सख्त गरमी और लू से देश भर में तकरीबन दो हजार लोगों की जान जाने की खबरें आर्इं। लेकिन सरकार और मीडिया की नजर में यह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है। इसलिए किसी की मौत पर उसके परिवार को राहत या मुआवजा नहीं। जब भी कोई प्राकृतिक आपदा आती है तो अधिकतर मजदूर, किसान और गरीब लोग ही उसकी चपेट में आते हैं।

रोज घर से निकल कर दफ्तर जाने तक का समय मेरे लिए असहनीय होता है। वातानुकूलित बस में बैठने से पहले और उससे निकलने के कुछ ही पलों बाद हाल बेहाल हो जाता है। कभी-कभी मन होता ही नहीं कि घर से निकला भी जाए। लेकिन इन्हीं आग बरसाते दिनों में सड़कों पर हजारों लोग दिहाड़ी कमाने में लगे रहते हैं।

फ्लाइओवरों और पुलों के नीचे धूप की तपिश से बचते हुए, बस अड्डों या पेड़ों के नीचे सांस लेते हुए लोग दिखते हैं। दिल्ली से बाहर खेतों में किसान काम करते नजर आए जाएंगे। लेकिन इन सबका ‘इंडिया’ से क्या वास्ता! विदेशी मीडिया हमें यह बता रहा है कि आने वाले समय में भारत में भयंकर सूखा पड़ सकता है। लेकिन देश का मीडिया और यहां की सरकार इन सबसे बेखबर अपनी वाहवाही में लगी हुई है। देश के नेता विदेश दौरों में लगे हुए हैं और सब तरफ सिर्फ ‘अच्छे दिनों’ का शोर परोसा जा रहा है।

हाल ही प्रकाशित एक रिपोर्ट में भारत में भूखे लोगों की संख्या विश्व में सबसे ज्यादा बताई गई। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक भारत में उन्नीस करोड़ चालीस लाख भूखे लोग हैं। देश की आबादी का पांचवां हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे रहता है। हाशिये पर रहने वाले लोग हर आपदा में मरते हैं। लेकिन आजादी के अड़सठ साल बाद भी इस पर सरकार का ध्यान नहीं है।

नब्बे के दशक में शुरू हुए आर्थिक सुधार की नीतियों के बाद हाशिये पर रहने वाले लोग और भी बदतर हालत में जा चुके हैं। दूसरी ओर, देश के अभिजात तबकों और विदेश में रहने वाले प्रवासी भारतीयों के लिए लाभ के नए दरवाजे रोज खुल रहे हैं। प्रधानमंत्री आए दिन सवा सौ करोड़ नागरिकों के विकास की बात करते हैं। लेकिन उनके इस नारे में हाशिये के बाहर जी रहा समाज कहां है!

‪#‎प्रियंका‬....


Monday, June 8, 2015

'बस दो मिनट' पर एक बड़ा सा बवाल

मेरी पहली मैगी बड़ी ही बेस्वाद थी. आज भी याद है, मां ने मैगी दूध में डाल कर बनायी थी. उन दिनों टीवी पर मैगी का एक विज्ञापन बहुत चर्चित था. जिसमें बच्चे स्कूल की छुट्टी होते ही भाग कर घर आते हैं और टेबल पर प्लेटें और चमच पीटते हुए मैगी-मैगी गाते हैं और उनकी मां ‘बस 2 मिनट’ कह कर रसोई से मैगी लाकर देती है. स्कूली दिनों में यह 2 मिनट का जादू सर चढ़ के बोला था.

इस 2 मिनट की खुशियों की दास्तां 1947 से भी पुरानी है. मैगी भारत में तब आयी, जब नूडल्स भारत में पॉपुलर नहीं थे. मैगी को भारतीय अंदाज के साथ भारतीय संवेदनाओं से जोड़ कर पेश किया गया, जिससे मैगी ने जल्द ही हर घर में जगह बना ली. अब भारतीय बाजार में फास्टफूड में मैगी की हिस्सेदारी 70 प्रतिशत है. मैगी नेस्ले का प्रोडक्ट है. भारत में नेस्ले के मुनाफे में मैगी 30 प्रतिशत हिस्सेदार है. मैगी के 90 प्रतिशत उत्पाद भारत को केंद्र में रख कर बनते हैं, लेकिन अचानक पैदा हुए इस ‘2 मिनट पर बवाल’ पर सभी हैरान हैं.

मामला उत्तर प्रदेश के खाद्य सुरक्षा प्राधिकरण से शुरू हुआ, जहां मैगी के 12 अलग-अलग सैंपल लेकर केंद्र सरकार की कोलकाता स्थित लैब में टेस्ट कराया गया. मैगी में तय मात्र से 7 गुना अधिक लेड (सीसा) की मात्र पाया गया. यह मामला इतना बढ़ गया कि उत्तर प्रदेश की सरकार को मुकदमा दर्ज कराना पड़ा, जिसके चलते मैगी पर देशभर में बैन लगा दिया गया है.

यह शायद ‘मेक इन इंडिया’ की शुरुआत है, वरना वर्षो से जो कंपनी सिर्फ मैगी जैसे ‘क्विक फूड’ की वजह से पूरी दुनिया की नंबर एक कंपनी बनी हुई थी वो अचानक ही इतनी बड़ी लापरवाही कैसे कर सकती है? मैगी नेस्ले के सबसे बड़े ब्रांड में से एक है. इसका सालाना ग्लोबल कारोबार एक अरब डॉलर से भी ज्यादा है. गौरतलब है कि कुछ ऐसे भी प्रोडक्ट हैं, जो पूरी दुनिया में बैन हैं, लेकिन भारत में नहीं और हम सभी उनका लगातार उपभोग करते जा रहें हैं.

महिलाओं के कॉस्मेटिक्स जैसे फेयरनेस क्रीम्स में 44 प्रतिशत मरकरी मिली, लिपिस्टिक में 50 प्रतिशत क्रोमियम मिला और मसकारे में 43 प्रतिशत निकिल मिला. सीएसइ स्टेटमेंट के अनुसार, अरोमा मैजिक फेयर लोशन में सबसे ज्यादा 1.97 पीपीएम मरकरी मिली. ओले नैचुरल व्हाइट में 1.97 पीपीएम मरकरी और पॉन्ड्स व्हाइट ब्यूटी में 1.36 पीपीएम मरकरी मिली. इसी कतार में कई और बड़े ब्रांड भी हैं, लेकिन इन पर किसी भी तरह की कोई कार्यवाही नहीं की गयी.
ब्रांडेड शहद, जिनमें डाबर, पतंजलि, हिमालया, बैद्यनाथ, खादी और कुछ बाहर के ब्रांड शामिल हैं, जिनमें हानिकारक एंटीबायोटिक पाये जाते हैं, इन्हें बाहर बैन किया गया है, लेकिन भारत में नहीं.

दरअसल, 2 मिनट बवाल का अचानक होना कई सवाल पैदा करता है, जो न सिर्फ ब्रांड, ब्रांड अंबेसडर, ग्लोबल कारोबार से जुड़ा हुआ है, बल्कि भारत के बाजार के लिए भी प्रश्नचिह्न् है. देखना यह है कि मैगी की जांच के बाद यदि सचमुच यह सेहत को नुकसान पहुंचानेवाला हुआ, तो अब हमें कोई और विकल्प ढूंढ़ना होगा.


#प्रियंका....