Thursday, February 5, 2015

शाहिद...

रात भर टिमटिमाती अपनी आँखों को और ज्यादा तकलीफ न देते हुए...हार कर 4 बजे(सुबह के) सोचा की चलो बहुत हुआ...अँधेरे कमरे में परेशानियों को एक खूंटी से दूसरी खूंटी पे टांगना, 4 से 6 बार कमरा नापना, दिन भर की कड़ियों को 'ओके ओके' कर आपस में चिपकाना, पूरे पारले जी बिस्किट का पैकेट खा जाना और कुछ बातें सोच सोच कर दिल जलाना... हटो छोड़ो ये सब....चलो कोई मूवी देखी जाए......
तुरंत लेपटोप ऑन किया और ऑनलाइन मूवीज में ''शाहिद'' तलाशी.... इस फ़िल्म को मैं फस्ट डे फस्ट शो देखना चाहती थी पर....टलते टलते 2015 आ गया...

2013 में रिलीज़ शाहिद बहुत कम दिनों के लिए सिनेमाघरों में रही क्यूंकि इसे उतने दर्शक नहीं मिल पाए जितने असल में मिलने चाहिये थे लेकिन ये फ़िल्म सराही गई. अनुराग कश्यप निर्मित एवं हंसल मेहता निर्देशित ‘शाहिद आज़मी की जीवनी’ पर आधारित फ़िल्म है ‘’शाहिद’’........
शाहिद आज़मी एक वकील और मानवाधिकार कार्यकर्त्ता थे जिनकी 2010 में मुम्बई में कट्टरपंथियों द्वारा हत्या कर दी गई थी...
फ़िल्म में दिखाया गया है कि कैसे एक बेकसूर शाहिद को 1992 के हुए बम धमाकों में शामिल होने के शक पर उसे जेल में डाल दिया जाता है जहाँ उसे दिल देहला देने वाली यातनाएं दी जाती हैं. जेल में रहते हुए उसकी मुलाकात अपने जैसे ही निर्दोष वॉर साब से होती है. जिसके बाद शाहिद को महसूस होता है की वो अकेला बेगुनाह नहीं है जो शक की बिनाह पर यातनाएं झेल रहा है बल्कि उसके जैसे सैंकड़ों हैं. जेल में रह कर शाहिद कानून की पढ़ाई पूरी करता है और बाहर निकल कानून की डिग्री ले कर वकालत शुरू करता है. शाहिद का मकसद उन बेगुनाहों को जेल से बाहर निकालना था, जिन्हें पुलिस ने सिर्फ शक के आधार पर बंद कर रखा था और जिनके पास क़ानूनी लड़ाई के लिए पैसा नहीं था.....लेकिन धार्मिक कट्टरपंथियों को 'शाहिद' के तौर तरीके रास नहीं आते. उसे धमकियां मिलती हैं कि वो अपनी 'हरकतों' से बाज़ आए लेकिन शाहिद किसी की परवाह नही करता और फिर एक दिन कुछ लोग उसके ऑफिस में ही आ कर उसकी हत्या कर देते हैं.
फ़िल्म में दिखाया है की किस कदर कानून की कार्यवाही को पूरा करने के लिए किसी भी गरीब और असहाय को मुजरिम करार दे कर सालों तक जेल में टॉर्चर किया जाता है. जिसके पास पैसे नही, साधन नही, वकील नही मतलब वो मुजरिम और जिसके पास पैसा वो मुजरिम होते हुए भी शरीफ.
फ़िल्म के एक सीन में ये भी दिखाया गया है की कैसे साथी वकील शाहिद को केस की बहस के दौरान उसके अतीत को लेकर टीस करती है. शाहिद की घुटन और उसका खुद को साबित न कर पाने की छटपटाहट आपको बैचन कर देगी. ये होता ही है किसी को हराने के लिए कोशिश की जाती है की सामने वाले को भावनात्मक चोट दी जाये जिससे वो तड़प उठे और मैदान छोड़ दे.
भारत में इस तरह के तमाम मामले भरे पड़े हैं. देश की जेलों में न जाने कितने बेगुनाह अपनी मज़बूरी की सज़ा काट रहें हैं जिनमें से कई तो इंसाफ के इंतज़ार में जेल में ही मर जाते हैं और कई अपने बचपन से बुढ़ापे तक का सफर रिहाई की उम्मीद में बिता देते हैं जिसके बाद उन्हें मिलता है कोर्ट की तरफ से माफीनामा....परिवार के सालों के इंतज़ार को मिलता है माफीनामा....समाज से लुप्त हो चुकी उनकी पहचान के बदले में मिलता है माफीनामा....ज़िन्दगी से गुज़र चुके त्यौहारों, खुशियों और सपनों के बदले मिलता है माफीनामा.....दफन हो चुकी इच्छाओं और मर चुकी जीने की ललक को मिलता है तो सिर्फ माफीनामा.....
और इस माफीनामे का मोल क्या है ....क्या है ?? शायद अफ़सोस....

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