Friday, July 10, 2015

डिजिटल इंडिया और भारत

दिल्ली के कनॉट पेलेस, कॉफ़ी हाउस के गेट के सामने कुछ गरीब परिवार लोगों का अधनंगा झुंड, एक छोटू लेपटोप(पाम टॉप) पर फिल्मी गाने, जय श्री कृष्णा, सास बहु सीरियल देखेते हुए मिल जायेगा. ये लोग उस पर टीवी चला कर देखते हैं और वहीँ उसी चबूतरें पर अपने गंदे चीथड़ों के साथ सो जाते हैं. 1 जुलाई को जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने डिजिटल इंडिया सप्ताह की घोषणा की, उस वक्त मुझे इस परिवार का ध्यान आया.

जिनके सर पर छत नहीं, दो वक़्त की रोटी का पता नहीं, बदन पर कतरनों के अलावा कालिख और कुछ नही उनके पास लेपटोप, वो भी टीवी जैसी सुविधा के साथ. वाकई यही इंडिया है डिजिटल इंडिया. ऐसा ही तो इंडिया चाहते हैं हमारे प्रधानमंत्री महोदय. जरुरत के समय जहाँ शहरों में ऑनलाइन टिकट नहीं मिलती, बैंक इनफार्मेशन नहीं मिलती, हॉस्पिटैलिटी कि सुविधाएं नहीं मिलती वहां देश के आखिरी घर तक इन्टरनेट पहुँचाने की यह योजना कितनी कारगर होगी इस पर संदेह है.

प्रधानमंत्री 'डिजिटल इंडिया' कार्यक्रम की घोषणा के समय कहते हैं कि 'शहर और गांव में सुविधा के कारण जो खाई पैदा होती है, उससे भी भयंकर स्थिति डिजिटल डिवाइड के कारण पैदा होती है.' अफसोस है कि इसका समाधान उन्होंने 'डिजिटल इंडिया' में खोजा. 'डिजिटल इंडिया' के जरिये अमीर और गरीब के बीच की खाई पाटने की कोशिश खयाली पुलाव जैसी है. भारत में बहुसंख्या ऐसी है जिसके पास सूचना के कोई साधन नहीं हैं. इसके मूल में अशिक्षा और गरीबी है. सूचना गरीबों तक सूचना पहुंचाने के लिए पहला उपाय उन्हें शिक्षित करना है. प्रधानमंत्री ने शिक्षा का बजट 16.5 प्रतिशत घटाने के सिवा शिक्षा पर कोई उल्लेखनीय पहलकदमी नहीं की है. शिक्षा के बिना ई-गवर्नेंस या मोबाइल गवर्नेंस की आम आदमी के लिए क्या उपयोगिता होगी? प्रधानमंत्री इन्टनेट से पहले शिक्षा की बात क्यों नहीं करते? 'डिजिटल इंडिया' से पहले 'एजुकेट इंडिया' पर बात क्यों नहीं करते?

सरकारी आंकड़े में 95 फीसदी स्कूल आरटीई के मानकों पर फेल हैं. 'डिजिटल भारत' के लिए साक्षर भारत चाहिए. ग्रामीण भारत के जिन स्कूलों में टाट पट्टी और ब्लैक बोर्ड नहीं हैं, वे 'डिजिटल इंडिया' को ओढ़ेंगे या बिछाएंगे? जिस देश को आज सस्ती दालें, सब्जियां और अन्य सेवाएं चाहिए उन्हें आप इन्टरनेट की सस्ती सुविधा देने की बात करते हैं तो आश्चर्य नहीं हंसी आती है.

डिजिटल इंडिया में बीएसएनएल और MTNL को छोड़ बाकी मोबाइल कंपनियों को इसका हिस्सा बनाया गया ताकि पहले सस्ता फिर मंहगा इन्टरनेट कर निजी कंपनियों का खजाना बढ़ाया जा सके. सबसे बड़ी बात इस सुविधा का इस्तेमाल वही कर पायेगा जिसका आधार कार्ड होगा. जिसके लिए सुप्रीमकोर्ट ने पहले ही कहा है कि, आधार कार्ड का कोई आधार नहीं है. और अब जब डिजिटल इंडिया आया है तो बिना आधार के ये बेकार है. यानी अब आधार बनवाएं तब डिजिटल हो पाएं.

भारत की कुल आबादी का 20% लोग ही इन्टरनेट इस्तेमाल करते हैं जिनमें भी सिर्फ 10% ही इन्टरनेट के जानकार है. (असल डिजिटल इंडिया तब होगा जब हम साउथ कोरिया की बराबरी करेंगे जहाँ 98% लोग इन्टरनेट इस्तेमाल करते हैं)

भारत का डाउनलोडिंग स्पीड में विश्व में 53वां स्थान है माने 2MBPS की स्पीड से डाउनलोडिंग होती है जो की सिर्फ शहरों में नेटवर्क की वजह से मुमकिन है. अब ये गाँव तक कैसे मुमकिन होगा ये सोचने का विषय है.

हर माह लगभग 500 रुपए इन्टरनेट में खर्च करने वाला मोबाइल यूजर शहरों में मुमकिन भी हो लेकिन गाँव में जहाँ दो वक़्त की रोटी के लिए भी दिन-रात का संघर्ष है वहां इस सुविधा का होना न होना एक ही बात है.

भारत देश में आज भी 40 करोड़ लोगों के पास पर्याप्त बिजली की सुविधा नहीं है जो यूएस और कनाडा की आबादी के बराबर है. ऐसे में कैसे पूरा होगा डिजिटल इंडिया का यह महेंगा ख्वाब? देश कि वास्तविक जरूरतों को नज़रंदाज़ कर यदि डिजिटल इंडिया सम्पूर्ण ग्रामीण भारत को रोटी, कपड़ा, मकान और शिक्षा दे सके तो निश्चित रूप से इस योजना को लागू करें. वरना अच्छे दिन तो पहले ही भारत भुगत रहा है.




प्रियंका.....

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