Thursday, October 2, 2014

दिल्ली लाइफ-3

दिल्ली की मेट्रो और उसके जलवे..... या यूँ कहूँ की मेट्रों को जलवे दिए हैं दिल्ली के लोगों ने ....ख़ास कर यहाँ की लड़कियों ने .....पर ये जलवे जितने आकर्षक हैं उतने ही अचंभित करने वाले भी....

महिलाओं के लिए ख़ास आरक्षित डिब्बे में भी कई बार मर्दों होना ऐसा महसूस कराता है जैसे ''हमारी थाली में कोई और खाना खा रहा हो'' .....

मेरा अनुभव भी ऐसा रहा कई बार ....जिसके चलते मैंने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मर्दों को ये एहसास भी कराया की ''तुम निकलो यहाँ से'' .....पर कुत्ते की जात....(वफ़ादारी के लिए नहीं टेड़ी पूंछ के लिए).... कितना भी सिखा लो...पढ़ा लो ..... रहते ढेर ही हैं....

गुस्सा तब आता है जब इन टेड़ी पूंछ वालों की नज़रे खड़े-खड़े लड़कियों के शरीर को नाप लेती हैं....न जाने दिमाग में क्या-क्या चल रहा होता हैं....आंखे अलग निकल के बाहर आ जाती हैं ....बस नहीं चलता वरना अपनी आंखे निकाल कर लड़कियों के बदन पर लगा दें......ऐसी स्क्रीनिंग करते है कि क्या कहें ......इनके हाथों के इशारे और बदन की उठक-बैठक इनकी बैचनी को साफ़ दर्शाती है.....

शाम अपना काम निपटा कर जब वापस अपने ठिकाने को चली तब मेट्रों में महिलाओं के डिब्बे की भीड़ देख वापस हो ली .....मुड़ कर जनरल डिब्बे में आ गयी .....

भीड़ थी पर ऐसा भी नहीं था की कोई चिपकने लगे ....लडकों से डिब्बा भरा हुआ था सभी ऑफिस से ठिकाने को लौट रहे थे ....इसी बीच एक लंपट ने एक टाइम पूछा....

उसकी तरफ देख गुस्सा आया और मन में गलियां भी .....वाहियात इन्सान हाथ में मोबाइल हैं और टाइम मुझसे पूछ रहा है तेरा मोबाइल फूटा हैं क्या ?.... इत्ता बढ़ियाँ मोबाइल लिए हो और जब टाइम नहीं दिखाता तो फैंक परे.....

गुस्सा रोक कर मैंने टाइम बता दिया.....तब तो जैसे उसकी हिम्मत बढ़ गयी ....लगा घूरने ....ऊपर से नीचे ....टकटकी लगाये रहा ....खूब नाप लिया होगा लीचड़ ने ....मन में घटिया से घटिया ख्याल बुन लिए होंगे और उसकी शक्ल देख के लग रहा था की वो ....असल में कुत्ता ही है .....

पहले तो सोचा की क्यूँ अपना मूड ख़राब करूं फिर सोचा ख़राब तो हो ही गया है अब इसे ठीक कर लेती हूँ .......

अपनी सारी तमीज़ को बैग में डाला और उसको बोला '' टाइम पूछ रहा था या पता लगा रहा था की तेरा बुरा समय शुरू हुआ या नहीं ''.....

वो चौंक कर बोला- क्या मतलब ??

मैंने सीधे से बोल दिया '' इतनी देर से जो तेरे दिमाग में कीड़े चल रहे है न वो तेरी आँखों से हो कर बाहर मुझे दिखने लगे हैं ....तमीज़ तो हैं नहीं तुझमे.....वाहियात इन्सान''......

ये सुनते ही उसका मुंह इतना लम्बा लटक गया नीचे की ओर जैसे बिछ ही जायेगा फर्श पर और बाकी ये वार्तालाप सुन ....कुछ गुड-गुड करते रहे और कुछ हंसने लगे ....... पर कोई बीच में बोला नहीं .....

नामर्द कहीं के ....


*औरतें अगर आदमियों का दिमाग पढने लगे न ...तो रोज़ उन्हें एक थप्पड़ मिले..

(लोगो को समझने में दिक्कत हो रही हैं इसलिए बता दूँ ....सभी मर्द/पुरुष एक जैसे नहीं होते...यहाँ कुछ खास किस्म के मर्दों/पुरुषों के बारे में बात की हैं...)

http://www.thepatrika.com/NewsPortal/h?cID=gDOR8Wti4OU%3D

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