Tuesday, March 11, 2014

मेरी होली

बचपन में होली यानी हमारा रंगबिरंगा खेल, पापड़ मिठाइयाँ, मेहमानों का आना जाना और रात को गाना बजाना। होली के आने से पहले ही तैयारियाँ शुरू हो जाया करती थी और होलिका दहन की रात के जगराते से ले कर अगले दिन की पूरी होली खेलन तक मन में उछलकूद बनी रहती थी। सुबह से शाम तक लोगो का आना जाना लगा रहता था, कोई पूछ कर नहीं आता था, कई बार तो वो लोग आते मिलने जिन्हें हम जानते या पहचानतें भी नहीं थे। अच्छा लगता था लोगो का आना, माँ और पिताजी से आशीर्वाद लेना, उनका यूँ स्नेह और सम्मान देना ही मुझे सालभर होली का इंतज़ार करवाता था, उस दिन सही मायने में पता लगता था समाज में रहना, लोगो के बीच रहना क्या होता है। होली पंसद थी इसलिए भी कि हम बच्चों के लिए कोई रोकटोक नहीं होती थी यहाँ खेलों, वहाँ जाओ बस खेल था रंगबिरंगा पानी से भरा इंद्रधनुषी खेल।
जब युवावस्था तक आये तो होली बदल गयी और उसके मायने भी, होली यानी छुट्टी, आना जाना, अच्छे पकवान और सिर्फ गुलाल। शायद हम बड़े होगये थे या होली पुरानी हो गयी थी। बदलाव तो आया पर कैसे पता नहीं चला। होलिका देहन प्रदुषण लगने लगा और होली खेलना ऐलर्जी का मुख्य कारण इसलिए सिर्फ होली देखना शुरू किया। घर बदल गया था अब हम कॉलोनी में रहते थे और यहाँ सोशल स्टेटस के हिसाब से होली खेली जाती थी। 
शुरुआत में जब हम नये थे यहाँ तब सब नया था होली भी नयी थी पंडाल लगा कर गीत सँगीत का आयोजन किया जाता था ठंडाई और कई अन्य व्यंजन सजाये जाते थे मेजों पर। बारी बारी से हर परिवार के लोगो को गुलाल का तिलक लगा कर बधाईयाँ दी जाती थी जैसे सबको लाईन में लगा कर ये बताया जाता था की ''आपको पता है आज त्यौहार है ''....... हास्यपद लगता था ये सब
उस एक होली के दिन में कॉलोनी के बनावटी लोग एक दूसरे से बातें किया करते थे जो कि उनके स्टेटस सिम्बल को मेन्टेन करने के लिए जरुरी होता था।
बातें भी ऐसी जिनमें सिर्फ उनके रुतबे का प्रदर्शन होता था, नयी गाड़ी, विदेशी टूर, बच्चे की महँगी पढ़ाई और राजनीती का रोना जो हो तो हर बात अधूरी लगती इन बड़े लोगो की। शुरुआत के दो साल यूँही त्यौहार मनाया गया उसके बाद सभी परिवार एक दूसरे पड़ोसी परिवार के प्रतियोगी बन गए जिसमें शीत युद्ध हमेंशा ज़ारी रहता था इसलिए अब जब होली आती तब गिनती के ग्रुप वाले परिवार एकत्र होते और उसी बनावटी अंदाज़ में होली मनाया करते।
ये भी समय बीता और आज होली का मतलब सिर्फ छुट्टी है कोई बुलावा नहीं क्यूँकि हमारा परिवार किसी ग्रुप में नहीं, कोई पकवान नहीं क्यूँकि कोई खाता ही नहीं सब हेल्थ कॉन्शस हो गए है, कहीं जाना नहीं होता क्यूँकि अब कोई घर नहीं आता सिर्फ घर में रहना और घर की छत से, बालकॉनी से ग्रुपिज़म की स्क्रिप्टिड होली देखना और स्टेट्स को मेन्टेन करते नाटक देखना होली रह गया है।
सोचती हूँ हम छोटे अच्छे थे या अपने पहले वाले घर में अच्छे थे क्यूँकि कई बार बड़ा होना और परिवर्तन होना नीरसता लाता है जीवन में, समाज से अलग कर देता है, छोटी छोटी खुशियों के भी मायने बदल देता है।
ऐसा नहीं था कभी की होली अच्छी नहीं लगी या होली का त्यौहार मनाया नहीं पर वो होली खेलना और त्यौहार मनाना अब शायद मिडिल क्लास हो गया, छोटी सोच हो गया और टाइम वेस्टिंग हो गया। 
पर क्या सच में ऐसा है, क्या वाकई होली की तरहा सभी त्यौहार और मिलना जुलना भी स्टेटस सिम्बल हो गया है, जिसे मेन्टेन करने के लिए समाज से दुरी बना ली जाती है और ये दिखाया जाता है की यही उनकी होली है जो यूनिक है, ख़ास है और बड़े लोगो कि होली है।
ये सवाल हर बार कि तरहा इस बार भी मेरे मन में होली के आगमन को चिढ़ा रहा है जिससे में खुद को विचलित होने से नहीं बचा पाती जिसे अपनी कलम से कई बार शांत करने की कोशिश करती हूँ।

होली के विषय में अपने शब्दों में सिर्फ यही कहना चाहती हूँ……..

मनाओ
खुशियाँ अपनों के साथ
मिल कर रहो
सब के साथ

रंग है कई
तो रिश्ते भी
कई रखो,
निभाओ सभी
ईमानदारी के साथ

है दिन ये
बहुत मिलनसार
बाटो प्यार
सब के साथ

खाओ पियो
ओरो के घर -बार,
अपनी खुशी
उनके साथ

कभी
रंजिश जो
किसी ने रखी,
छोड़ो भूलो सब
पकड़ो उसके हाथ

होली
नाम रंगों का
ही नहीं
एक सार डुबो ले जो
ऐसा ये खुशियों का घाट

अपने
दिल -दरवाज़े
खोल कर रखो
देखो मिल जाये
शायद कोई बिछड़ा यार

इस होली
खुशियाँ हो अपार

आप सभी को
प्यार भरा होली का
ये त्यौहार मुबारक
बहुत सारी दुआओं के साथ.........




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